सरहद के पार से
जन्मभूमि से दूर, किसी बन में या सरित-किनारे, हम तो लो, सो रहे लगाते आजादी के नारे। ज्ञात नहीं किनको कितने दुख में हम छोड़ चले हैं, किस असहाय दशा में किनसे नाता तोड़ चले हैं। जो रोयें, तुम उन्हें सुनाना ज्वालामयी कहानी, स्यात्, सुखा दे यह ज्वाला उनकी आँखों का पानी। आये थे हम यहाँ देश-माता का मान बढ़ाने, स्वतन्त्रता के महा यज्ञ में अपना हविस् चढ़ाने। सो पूर्णाहुति हुई; देवता की सुन अन्य पुकार, मिट्टी की गोदी तज हम चलने को हैं तैयार। माँ का आशीर्वाद, प्रिया का प्रेम लिये जाते हैं, केवल है सन्देश एक जो तुम्हें दिये जाते हैं। यह झण्डा, जिसको मुर्दे की मुट्ठी जकड़ रही है, छिन न जाय, इस भय से अब भी कस कर पकड़ रही है; थामो इसे; शपथ लो, बलि का कोई क्रम न रुकेगा, चाहे जो हो जाय, मगर, यह झण्डा नहीं झुकेगा। इस झण्डे में शान चमकती है मरने वालों की, भीमकाय पर्वत से मुट्ठीभर लड़नेवालों की। इसके नीचे ध्वनित हुआ ’आजाद हिन्द’ का नारा, बही देश भर के लोहू की यहाँ एक हो धारा। जिस दिन हो तिमिरान्त, विजय की किरणें जब लहरायें, अलग-अलग बहनेवाली ये सरिताएँ मिल जाएँ। संगम पर गाड़ना ध्वजा यह, इसका मान बढ़ाना, और याद में हम-जैसों की भी दो फूल चढ़ाना।

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