मानवती
रूठ गई अबकी पावस के पहले मानवती मेरी की मैंने मनुहार बहुत , पर आँख नहीं उसने फेरी। वर्षा गई, शरत आया, जल घटा, पुलिन ऊपर आये, बसे बबूलों पर खगदल, फुनगी पर पीत कुसुम छाये। आज चाँदनी देख, न जानें, मैं ने क्यों ऐसे गाया- "अब तो हँसो मानिनी मेरी, वर्षा गई, शरत आया। तारों के श्रुति-फूल मनोहर, कलियों का कंकन सुन्दर है। मानिनि! यह तो चीर तुम्हारा, तना हुआ जो नीलाम्बर है। चलो, करो शृंगार, बुलाती तुम्हें खंजनों की टोली, आमन्त्रित कर रही विपिन की कली तुम्हारी हमजोली। उलर रही मंजरी कास की, हवा भूमती आती है, राशि-राशि अवली फूलों की एक ओर झुक जाती है। उगा अगस्त्य, उतर आया सरसी में निरमल व्योम सखी, झलमल-झलमल काँप रहे हैं जल में उडु औ’ सोम सखी। दिन की नई दीप्ति; हरियाली- पर नूतन शोभा छाई है, पावस-धौत धरा पर, मानों, चढ़ी नई यह तरुणाई है। आज खेलने नहीं चलोगी रानी, कासों के वन में?" बोली कुछ भी नहीं, लोभ उपजा न मानिनी के मन में। "रानी, आधी रात गई है, घर है बन्द, दीप जलता है; ऐसे समय, रूठना प्यारी का प्रिय के मन को खलता है। मना रहा, ‘आनन्द-सूत्र में ग्रन्थि डाल रोओ न लली! ये मधु के दिन, इन्हें अकारण रूठ-रूठ खोओ न लली! तुम सखि, इन्द्रपरी के तन में सावित्री का मन लाई, ताप तप्त मरु में मेरे हित शीत-स्निग्ध जीवन लाई। जीवन के दिन चार, अवधि उससे भी अल्प जवानी की, उस पर भी कितनी छोटी निशि होती प्रणय-कहानी की? हम दोनों की प्रथम रात यह, आज करो मत मान प्रिये। मिट न सकेगी कसक कभी, यदि यों ही हुआ विहान प्रिये।’ रानी, यह कैसी विपत्ति है? जिस पर बीते, वही बखाने। प्रिये, मन अपना तज कर द्रुत उस मानिनि को चलो मनाने। चलो शीघ्र, पौ फटे नहीं, उग जाय न कहीं अरुण रेखा।" मानवती ने भ्रू समेट कर मेरी ओर तनिक देखा। "प्रासादों से घिरी कुटी में चिन्ता-मग्न खड़ी कविजाया कोस रही वाणी के सुत को- ‘टका सत्य है औ’ सब माया। गहनों से शोभा बढ़ती है, उदरपूर्ति है अन्नों से। तुम्हें, न जानें क्या मिलता लिपटे रहने में पन्नों से? सुस्थिर हो दो बात करें, यह भी बाकी अरमान मुझे, ऐसी क्या कुछ दे रक्खी, चाँदी-सोने की खान मुझे?’ गिरती कठिन गाज-सी सिर पर, कवि का हृदय दहल जाता है; आँसू पी, बरबस हँस-हँस कर प्राण-प्रिया को समझाता है- ‘बना रखूँ पुतली दृग की, निर्धन का यही दुलार सखी! स्वप्न छोड़ क्या पास, तुम्हारा जिससे करूँ सिंगार सखी? कहाँ रखूँ? किस भाँति? सोच यह तड़पा करता प्यार सखी! नयन मूँद बाँहों में भर लेता आखिर लाचार सखी! घास-पात की कुटी हमारी, किन्तु, तुम्हीं इसकी रानी हो; क्या न तुम्हें सन्तोष, किसी कवि की वरदा तुम कल्याणी हो? जलती हुई धूप है तो आँगन में वट की छाँह सखी! व्यजन करूँ, सोओ सिर के नीचे ले मेरी बाँह सखी! जरा पैठ मेरे अन्तर में सुनो प्रणय-गुंजार सखी! देखो, मन में रचा तुम्हारे हित कैसा संसार सखी!" यह अचरज मानिनि, तो देखो, क्षुधा सौंत भोली कविता की; उलझ रही मकड़ी-जाली में ज्योति परम पावन सविता की। कलियाँ हृदय चीर टहनी का खिलने को अकुलाती हैं, सह सकतीं न जलन, बाहर आते-आते जल जाती हैं। घूम रही कल्पना अकेली जग से दूर इन्द्र के पुर में; कविजाया ने स्वर्ग न देख बसता जो प्रियतम के उर में। अन्तर्दीप्त रूप निज प्रिय का ग्रामवधू कैसे पहचाने? वाणी भी भिक्षुणी जगत में, वह सीधी-भोली क्यों माने? जीवन की रसवृष्टि (पंक्ति कविवर की) क्यों चाँदी न हुई? कविजाया कहती, लक्ष्मी क्यों कविता की बाँदी न हुई? खोज रही आनन्द कल्पना दूब, लता गिरिमाला में, कल्पक के शिशु झुलस रहे हैं इधर पेट की ज्वाला में। जिसके मूर्त्त स्वप्न भूखे हों, वह गायक कैसे गाए?" मनवती चुप रही, दृगों में करुणा के बादल छाए।

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