सकल वेदना विस्मृत होती स्मरण तुम्हारा जब होता विश्वबोध हो जाता है जिससे न मनुष्य कभी रोता...
क्या हमने यह दिया, हुए क्यों रूष्ट हमें बतलाओ भी ठहरो, सुन लो बात हमारी, तनक न जाओ, आओ भी रूठ गये तुम नहीं सुनोगे, अच्छा ! अच्छी बात हुई सुहृद, सदय, सज्जन मधुमुख थे मुझको अबतक मिले कई ...
नया हृदय है, नया समय है, नया कुंज है नये कमल-दल-बीच गया किंजल्क-पुंज है नया तुम्हारा राग मनोहर श्रुति सुखकारी नया कण्ठ कमनीय, वाणि वीणा-अनुकारी...
बना लो हृदय-बीच निज धाम करो हमको प्रभु पूरन-काम शंका रहे न मन में नाथ रहो हरदम तुम मेरे साथ...
विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो कर के नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा प्रेम के दृग-तारा-से ये निर्निमेष हैं देख रहे-से रूप अलौकिक सुन्दर किसका...
मिल गया था पथ में वह रत्न। किन्तु मैने फिर किया न यत्न॥ पहल न उसमे था बना, चढ़ा न रहा खराद।...
विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है...
अरूण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलि-गन से मिल रहा है गगन मे सन्ध्या की लालिमा से किया संकुचित वदन था जिसने दिया न मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ही के वो मिल रहा है...
प्रिय मनोरथ व्यक्त करें कहो जगत्-नीरवता कहती ‘नहीं’ गगन में ग्रह गोलक, तारका सब किये तन दृष्टि विचार में ...
व्याप्त है क्या स्वच्छ सुषमा-सी उषा भूलोक में स्वर्णमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक में शुभ्र जलधर एक-दो कोई कहीं दिखला गये भाग जाने का अनिल-निर्देश वे भी पा गये ...
क्यों जीवन-धन ! ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सर्वत्र लिखते हुए लेखनी हिलती, कँमता जाता है यह पत्र औरों के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं जिसके तुम हो एक सहारा, उसको भूल न जाव कहीं...
विश्व के नीरव निर्जन में। जब करता हूँ बेकल, चंचल, मानस को कुछ शान्त, होती है कुछ ऐसी हलचल,...
नील नीरद देखकर आकाश में क्यो खड़ा चातक रहा किस आश में क्यो चकोरों को हुआ उल्लास है क्या कलानिधि का अपूर्व विकास है...
जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो...
मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही, अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा, बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही...
जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे...
पतित हो जन्म से, या कर्म ही से क्यों नहीं होवे पिता सब का वही है एक, उसकी गोद में रोवे पतित पदपद्म में होवे ताे पावन हो जाता है...
शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर घिर आवेगी? वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी? रिक्त हो रही मधु से सौरभ सूख रहा है आतप हैं; सुमन कली खिलकर कब अपनी पंखुड़ियाँ बिखरावेगी?...
वसुधा के अंचल पर यह क्या कन- कन सा गया बिखर ? जल-शिशु की चंचल क्रीड़ा- सा, जैसे सरसिज डाल पर।...
बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी! खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा...
कानन-कुसुम - पुन्य औ पाप न जान्यो जात। सब तेरे ही काज करत है और न उन्हे सिरात ॥ सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय।...
अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा॥ सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर। छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा॥...
शरद का सुंदर नीलाकाश निशा निखरी, था निर्मल हास बह रही छाया पथ में स्वच्छ सुधा सरिता लेती उच्छ्वास...
आह! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण...
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती 'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!' ...
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो।...
तुम कनक किरन के अंतराल में लुक छिप कर चलते हो क्यों ? नत मस्तक गवर् वहन करते यौवन के घन रस कन झरते...
हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक ...
मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह, मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी। इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंग्य मलिन उपहास...
सब जीवन बीता जाता है धूप छाँह के खेल सदॄश सब जीवन बीता जाता है समय भागता है प्रतिक्षण में,...