याचना
जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो जब शैल के सब श्रृंग विद्युद़ वृन्द के आघात से हों गिर रह भीषण मचाते विश्व में व्याघात-से जब र घिर रहे हों प्रलय-घन अवकाश-गत आकाश में तब भी प्रभो ! यह मन खिंचे तव प्रेम-धारा-पाश में जब क्रूर षडरिपु के कुचक्रों में पड़े यह मन कभी जब दुःख कि ज्वालावली हों भस्म करती सुख सभी जब हों कृतघ्नों के कुटिल आघात विद्युत्पात-से जब स्वार्थी दुख दे रहे अपने मलिन छलछात से जब छोड़कर प्रेमी तथा सन्मित्र सब संसार में इस घाव पर छिड़कें नमक, हो दुख खड़ा आकार में करूणानिधे ! हों दुःखसागर में कि हम आनन्द में मन-मधुप हो विश्वस्त-प्रमुदित तव चरण अरविन्द में हम हाें सुमन की सेज पर या कंटको की आड़ में पर प्राणधन ! तुम छिपे रहना, इस हृदय की आड़ में हम हो कहीं इस लोक में, उस लोक में, भूलोक में तव प्रेम-पथ में ही चलें, हे नाथ ! तव आलोक में

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