वसुधा के अंचल पर
वसुधा के अंचल पर यह क्या कन- कन सा गया बिखर ? जल-शिशु की चंचल क्रीड़ा- सा, जैसे सरसिज डाल पर। लालसा निराशा में ढलमल वेदना और सुख में विह्वल यह या है रे मानव जीवन? कितना है रहा निखर। मिलने चलते अब दो कन, आकर्षण - मय चुम्बन बन, दल के नस-नस में बह जाती- लघु-लघु धारा सुंदर। हिलता-डुलता चन्चल दल, ये सब कितने हैं रहे मचल? कन-कन अनन्त अंबुधि बनते! कब रूकती लीला निष्ठुर! तब क्यों रे यह सब क्यों ? यह रोष भरी लाली क्यों ? गिरने दे नयनों से उज्जवल आँसू के कन मनहर- वसुधा के अंचल पर !

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