ग्रीष्म का मध्यान्ह
विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है हरे-हरे पत्‍ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है

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