निशीथ-नदी
विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो कर के नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा प्रेम के दृग-तारा-से ये निर्निमेष हैं देख रहे-से रूप अलौकिक सुन्दर किसका दिशा, धारा, तरू-राजि सभी ये चिन्तित-से हैं शान्त पवन स्वर्गीय स्पर्श से सुख देता है दुखी हृदय में प्रिय-प्रतीति की विमल विभा-सी तारा-ज्योति मिल है तम में, कुछ प्रकाश है कुल युगल में देखो कैसी यह सरिता है चारों ओर दृश्य सब कैसे हरे-भरे हैं बालू भी इस स्नेहपूर्ण जल प्रभाव से उर्वर हैं हो रहे, करारे नहीं काटते पंकिल करते नहीं स्वच्छशीला सरिता को तरूगण अपनी शाखाओं से इंगित करके उसे दिखाते ओर मार्ग, वह ध्यान न देकर चली जा रही है अपनी ही सीधी धुन में उसे किसी से कुछ न द्वेष है, मोह भी नहीं उपल-खण्ड से टकराने का भाव नहीं है पंकिल या फेनिल होना भी नहीं जानती पर्ण-कुटीरों की न बहाती भरी वेग से क्षीणस्त्रोत भी नहीं हुई खर ग्रीष्म-ताप से गर्जन भी है नहीं, कहीं उत्पात नहीं है कोमल कल-कलनाद हो रहा शान्ति-गीत-सा कब यह जीवन-स्त्रोत मधुर ऐसा ही होगा हृदय-कुसुम कब सौरभ से यों विकसित होकर पूर्ण करेगा अपने परिमल से दिगंत को शांति-चित्त को अपने शीतल लहरों से कब शांत करेगा हर लेगा कब दुःख-पिपासा

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