पतित पावन
पतित हो जन्म से, या कर्म ही से क्यों नहीं होवे पिता सब का वही है एक, उसकी गोद में रोवे पतित पदपद्म में होवे ताे पावन हो जाता है पतित है गर्त में संसार के जो स्वर्ग से खसका पतित होना कहो अब कौन-सा बाकी रहा उसका पतित ही को बचाने के लिये, वह दौड़ आता है पतित हो चाह में उसके, जगत में यह बड़ा सुख है पतित हो जो नहीं इसमें, उसे सचमुच बड़ा दुख है पतित ही दीन होकर प्रेम से उसको बुलाता है पतित होकर लगाई धूल उस पद की न अंगों में पतित है जो नहीं उस प्रेमसागर की तरंगो में पतित हो ‘पूत’ हो जाना नहीं वह जान पाता है ‘प्रसाद’ उसका ग्रहण कर छोड़ दे आचार अनबन है वो सब जीवों का जीवन है, वही पतितों का पावन है पतित होने की देरी है तो पावन हो ही जाता है

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