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छाया खोलो, मुख से घूँघट खोलो, हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो! क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन,...

नव वसंत की रूप राशि का ऋतु उत्सव यह उपवन, सोच रहा हूँ, जन जग से क्या सचमुच लगता शोभन! या यह केवल प्रतिक्रिया, जो वर्गों के संस्कृत जन मन में जागृत करते, कुसुमित अंग, कंटकावृत मन!...

तुम आती हो, नव अंगों का शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो। बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम,...

सारा भारत है आज एक रे महा ग्राम! हैं मानचित्र ग्रामों के, उसके प्रथित नगर ग्रामीण हृदय में उसके शिक्षित संस्कृत नर, जीवन पर जिनका दृष्टि कोण प्राकृत, बर्बर,...

चाँदी की चौड़ी रेती, फिर स्वर्णिम गंगा धारा, जिसके निश्चल उर पर विजड़ित रत्न छाय नभ सारा!...

जोतो हे कवि, निज प्रतिभा के फल से निष्ठुर मानव अंतर, चिर जीर्ण विगत की खाद डाल जन-भूमि बनाओ सम सुंदर।...

नव जीवन को इंद्रिय दो हे, मानव को, नव जीवन की नव इंद्रिय, नव मानवता का अनुभव कर सके मनुज नव चेतनता से सक्रिय!...

फैली खेतों में दूर तलक मख़मल की कोमल हरियाली, लिपटीं जिससे रवि की किरणें चाँदी की सी उजली जाली ! ...

माँ! अल्मोड़े में आए थे जब राजर्षि विवेकानंदं, तब मग में मखमल बिछवाया, दीपावलि की विपुल अमंद,...

चंचल पग दीप-शिखा-से धर गृह,मग, वन में आया वसन्त! सुलगा फाल्गुन का सूनापन सौन्दर्य-शिखाओं में अनन्त!...

कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार! शयन कक्ष, दर्शन गृह की श्रृंगार! उपवन के यत्नों से पोषित. पुष्प पात्र में शोभित, रक्षित,...

बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से तुमने चिर अनजान प्राणों से गोपन रह न सकेगी अब यह मर्म कथा...

तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन, हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन, तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!...

शय्या ग्रस्त रहा मैं दो दिन, फूलदान में हँसमुख चंद्र मल्लिका के फूलों को रहा देखता सन्मुख। गुलदावदी कहूँ,—कोमलता की सीमा ये कोमल! शैशव स्मिति इनमें जीवन की भरी स्वच्छ, सद्योज्वल!...

अंधकार की गुहा सरीखी उन आँखों से डरता है मन, भरा दूर तक उनमें दारुण दैन्‍य दुख का नीरव रोदन!...

सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर, मानव! तुम सबसे सुन्दरतम, निर्मित सबकी तिल-सुषमा से तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!...

तुम वहन कर सको जन मन में मेरे विचार, वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार। भव कर्म आज युग की स्थितियों से है पीड़ित, जग का रूपांतर भी जनैक्य पर अवलंबित,...

फैली खेतों में दूर तलक मख़मल की कोमल हरियाली, लिपटीं जिससे रवि की किरणें चाँदी की सी उजली जाली ! ...

जय जन भारत जन मन अभिमत जय जन भारत जन मन अभिमत जन गण तंत्र विधाता जय गण तंत्र विधाता...

पूस: निशा का प्रथम प्रहर: खिड़की से बाहर दूर क्षितिज तक स्तब्ध आम्र वन सोया: क्षण भर दिन का भ्रम होता: पूनो ने तृण तरुओं पर चाँदी मढ़ दी है, भू को स्वप्नों से जड़कर!...

तुम भाव प्रवण हो। जीवन पिय हो, सहनशील सहृदय हो, कोमल मन हो। ग्राम तुम्हारा वास रूढ़ियों का गढ़ है चिर जर्जर, उच्च वंश मर्यादा केवल स्वर्ण-रत्नप्रभ पिंजर।...

जन भारत हे! भारत हे! स्वर्ग स्तंभवत् गौरव मस्तक उन्नत हिमवत् हे,...

चरमोन्नत जग में जब कि आज विज्ञान ज्ञान, बहु भौतिक साधन, यंत्र यान, वैभव महान, सेवक हैं विद्युत वाष्प शक्ति: धन बल नितांत, फिर क्यों जग में उत्पीड़न? जीवन यों अशांत?...

सिमटा पंख साँझ की लाली जा बैठी अब तरु शिखरों पर, ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर।...

वह अनगढ़ पाषाण खंड था- मैंने तपकर, खंटकर, भीतर कहीं सिमटकर उसका रूप निखारा ...

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश। मेखलाकर पर्वत अपार अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,...

मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर) दो छोटे-से लड़के आ जाते है अकसर! नंगे तन, गदबदे, साँबले, सहज छबीले, मिट्टी के मटमैले पुतले, - पर फुर्तीले। ...

रंग रंग के चीरों से भर अंग, चीरवासा-से, दैन्य शून्य में अप्रतिहत जीवन की अभिलाषा-से, जटा घटा सिर पर, यौवन की श्मश्रु छटा आनन पर, छोटी बड़ी तूँबियाँ, रँग रँग की गुरियाँ सज तन पर,...

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे, सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा! ...

अहे निष्ठुर परिवर्तन! तुम्हारा ही तांडव नर्तन विश्व का करुण विवर्तन! तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,...

जीना अपने ही में एक महान कर्म है जीने का हो सदुपयोग यह मनुज धर्म है...

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन? भूल अभी से इस जग को! ...

हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित, वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित! युग युग की वंदिनी, देह की कारा में निज सीमित, वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित!...

सृष्टि मिट्टी का गहरा अंधकार डूबा है उसमें एक बीज,-- वह खो न गया, मिट्टी न बना,...

छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़ कर पर्वत कारा अचल रूढ़ियों की, कवि! तेरी कविता धारा मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर-सी नि:सृत-- गलित ललित आलोक राशि, चिर अकलुष अविजित!...

यदि स्वर्ग कहीं है पृथ्वी पर, तो वह नारी उर के भीतर, दल पर दल खोल हृदय के अस्तर जब बिठलाती प्रसन्न होकर वह अमर प्रणय के शतदल पर!...

क्या मेरी आत्मा का चिर-धन ? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन ! प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, त्रिण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, ...

अपने ही सुख से चिर चंचल हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल, जीवन के फेनिल मोती को ले ले चल करतल में टलमल!...

खिल उठा हृदय, पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय! खुल गए साधना के बंधन, संगीत बना, उर का रोदन, ...

समर भूमि पर मानव शोणित से रंजित निर्भीक चरण धर, अभिनंदित हो दिग घोषित तोपों के गर्जन से प्रलयंकर, शुभागमन नव वर्ष कर रहा, हालाडोला पर चढ़ दुर्धर, वृहद विमानों के पंखो से बरसा कर विष वह्नि निरंतर!...