पाषाण खंड
वह अनगढ़ पाषाण खंड था- मैंने तपकर, खंटकर, भीतर कहीं सिमटकर उसका रूप निखारा तदवत भाव उतारा श्री मुख का सौंदर्य सँवारा! लोग उसे निज मुख बतलाते देख-देख कर नहीं अघाते वह तो प्रेम तुम्हारा प्रिय मुख तन्मय अंतर को देता सुख

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