बापू के प्रति
तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन, हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन, तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुराण, हे चिर नवीन! तुम पूर्ण इकाई जीवन की, जिसमें असार भव-शून्य लीन; आधार अमर, होगी जिस पर भावी की संस्कृति समासीन! तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि, निर्मित जिनसे नवयुग का तन, तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग है विश्व-भोग का वर साधन। इस भस्म-काम तन की रज से जग पूर्ण-काम नव जग-जीवन बीनेगा सत्य-अहिंसा के ताने-बानों से मानवपन! सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम, धुन तुमने कात प्रकाश-सूत, हे नग्न! नग्न-पशुता ढँक दी बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत। जग पीड़ित छूतों से प्रभूत, छू अमित स्पर्श से, हे अछूत! तुमने पावन कर, मुक्त किए मृत संस्कृतियों के विकृत भूत! सुख-भोग खोजने आते सब, आये तुम करने सत्य खोज, जग की मिट्टी के पुतले जन, तुम आत्मा के, मन के मनोज! जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर चेतना, अहिंसा, नम्र-ओज, पशुता का पंकज बना दिया तुमने मानवता का सरोज! पशु-बल की कारा से जग को दिखलाई आत्मा की विमुक्ति, विद्वेष, घृणा से लड़ने को सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति; वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ तुमने विचार-परिणीत उक्ति, विश्वानुरक्त हे अनासक्त! सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति! सहयोग सिखा शासित-जन को शासन का दुर्वह हरा भार, होकर निरस्त्र, सत्याग्रह से रोका मिथ्या का बल-प्रहार: बहु भेद-विग्रहों में खोई ली जीर्ण जाति क्षय से उबार, तुमने प्रकाश को कह प्रकाश, औ अन्धकार को अन्धकार। उर के चरखे में कात सूक्ष्म युग-युग का विषय-जनित विषाद, गुंजित कर दिया गगन जग का भर तुमने आत्मा का निनाद। रंग-रंग खद्दर के सूत्रों में नव-जीवन-आशा, स्पृह्यालाद, मानवी-कला के सूत्रधार! हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद। जड़वाद जर्जरित जग में तुम अवतरित हुए आत्मा महान, यन्त्राभिभूत जग में करने मानव-जीवन का परित्राण; बहु छाया-बिम्बों में खोया पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान, फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में फूँकने सत्य से अमर प्राण! संसार छोड़ कर ग्रहण किया नर-जीवन का परमार्थ-सार, अपवाद बने, मानवता के ध्रुव नियमों का करने प्रचार; हो सार्वजनिकता जयी, अजित! तुमने निजत्व निज दिया हार, लौकिकता को जीवित रखने तुम हुए अलौकिक, हे उदार! मंगल-शशि-लोलुप मानव थे विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक, तुम केन्द्र खोजने आये तब सब में व्यापक, गत राग-शोक; पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक, जीवन-इच्छा को आत्मा के वश में रख, शासित किए लोक। था व्याप्त दिशावधि ध्वान्त भ्रान्त इतिहास विश्व-उद्भव प्रमाण, बहु-हेतु, बुद्धि, जड़ वस्तु-वाद मानव-संस्कृति के बने प्राण; थे राष्ट्र, अर्थ, जन, साम्य-वाद छल सभ्य-जगत के शिष्ट-मान, भू पर रहते थे मनुज नहीं, बहु रूढि-रीति प्रेतों-समान-- तुम विश्व मंच पर हुए उदित बन जग-जीवन के सूत्रधार, पट पर पट उठा दिए मन से कर नव चरित्र का नवोद्धार; आत्मा को विषयाधार बना, दिशि-पल के दृश्यों को सँवार, गा-गा--एकोहं बहु स्याम, हर लिए भेद, भव-भीति-भार! एकता इष्ट निर्देश किया, जग खोज रहा था जब समता, अन्तर-शासन चिर राम-राज्य, औ’ वाह्य, आत्महन-अक्षमता; हों कर्म-निरत जन, राग-विरत, रति-विरति-व्यतिक्रम भ्रम-ममता, प्रतिक्रिया-क्रिया साधन-अवयव, है सत्य सिद्ध, गति-यति-क्षमता। ये राज्य, प्रजा, जन, साम्य-तन्त्र शासन-चालन के कृतक यान, मानस, मानुषी, विकास-शास्त्र हैं तुलनात्मक, सापेक्ष ज्ञान; भौतिक विज्ञानों की प्रसूति जीवन-उपकरण-चयन-प्रधान, मथ सूक्ष्म-स्थूल जग, बोले तुम-- मानव मानवता का विधान! साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी मानवता पशु-बलाक्रान्त, श्रृंखला दासता, प्रहरी बहु निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त; कारा-गृह में दे दिव्य जन्म मानव-आत्मा को मुक्त, कान्त, जन-शोषण की बढ़ती यमुना तुमने की नत-पद-प्रणत, शान्त! कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति बहु धर्म-जाति-गत रूप-नाम, बन्दी जग-जीवन, भू-विभक्त, विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम; आए तुम मुक्त पुरुष, कहने-- मिथ्या जड़-बन्धन, सत्य राम, नानृतं जयति सत्यं, मा भैः जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!

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