खोलो, मुख से घूँघट
छाया खोलो, मुख से घूँघट खोलो, हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो! क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन, अथवा भीतर जीवन-कम्पन? कल्पना मात्र मृदु देह-लता, पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता! है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता, है दृश्य, दृष्टि पर सके बता! पट पर पट केवल तम अपार, पट पर पट खुले, न मिला पार! सखि, हटा अपरिचय-अंधकार खोलो रहस्य के मर्म द्वार! मैं हार गया तह छील-छील, आँखों से प्रिय छबि लील-लील, मैं हूँ या तुम? यह कैसा छ्ल! या हम दोनों, दोनों के बल? तुम में कवि का मन गया समा, तुम कवि के मन की हो सुषमा; हम दो भी हैं या नित्य एक? तब कोई किसको सके देख? ओ मौन-चिरन्तन, तम-प्रकाश, चिर अवचनीय, आश्चर्य-पाश! तुम अतल गर्त, अविगत, अकूल, फैली अनन्त में बिना मूल! अज्ञेय गुह्य अग-जग छाई, माया, मोहिनि, सँग-सँग आई! तुम कुहुकिनि, जग की मोह-निशा, मैं रहूँ सत्य, तुम रहो मृषा!

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