सौन्दर्य कला
नव वसंत की रूप राशि का ऋतु उत्सव यह उपवन, सोच रहा हूँ, जन जग से क्या सचमुच लगता शोभन! या यह केवल प्रतिक्रिया, जो वर्गों के संस्कृत जन मन में जागृत करते, कुसुमित अंग, कंटकावृत मन! रंग रंग के खिले फ़्लॉक्स, वरवीना, छपे डियांथस, नत दृग ऐटिह्रिनम, तितली सी पेंज़ी, पॉपी सालस; हँसमुख कैंडीटफ्ट, रेशमी चटकीले नैशटरशम, खिली स्वीट पी,- - एवंडंस, फ़िल वास्केट औ’ ब्लू बैंटम। दुहरे कार्नेशंस, स्वीट सुलतान सहज रोमांचित, ऊँचे हाली हॉक, लार्कस्पर पुष्प स्तंभ से शोभित। फूले बहु मख़मली, रेशमी, मृदुल गुलाबों के दल, धवल मिसेज एंड्रू कार्नेगी, ब्रिटिश क्वीन हिम उज्वल। जोसेफ़ हिल, सनबर्स्ट पीत, स्वर्णिम लेडी हेलिंडन, ग्रेंड मुगल, रिचमंड, विकच ब्लैक प्रिंस नील लोहित तन। फ़ेअरी क्वीन, मार्गेरेट मृदु वीलियम शीन चिर पाटल, बटन रोज़ बहु लाल, ताम्र, माखनी रंग के कोमल। विविध आयताकार, वर्ग षट्कोण क्यारियाँ सुषमित, वर्तुल, अंडाकृति, नव रुचि से कटी छँटी, दूर्वावृत। चित्रित-से उपवन में शत रंगो में आतप-छाया, सुरभि श्वसित मारुत, पुलकित कुसुमों की कंपित काया। नव वसंत की श्री शोभा का दर्पण सा यह उपवन, सोच रहा हूँ, क्या विवर्ण जन जग से लगता शोभन! इस मटमैली पृथ्वी ने सतरंगी रवि किरणों से खींच लिए किस माया बल से सब रँग आभरणों से। युग युग से किन सूक्ष्म बीज कोषों से विकसित होकर राशि राशि ये रूप रंग भू पर हो रहे निछावर! जीवन ये भर सके नहीं मृन्मय तन में धरती के, सुंदरता के सब प्रयोग लग रहे प्रकृति के फीके! जग विकास क्रम में सुंदरता कब की हुई पराजित, तितली, पक्षी, पुष्प वर्ग इसके प्रमाण हैं जीवित। हृदय नहीं इस सुंदरता के, भावोन्मेष न मन में, अंगों का उल्लास न चिर रहता, कुम्हलाता क्षण में! हुआ सृष्टि में बुद्ध हॄदय जीवों का तभी पदार्पण, जड़ सुंदरता को निसर्ग कर सका न आत्म समर्पण, मानव उर में भर ममत्व जीवों के जीवन के प्रति चिर विकास प्रिय प्रकृति देखती तब से मानव परिणति। आज मानवी संस्कृतियाँ हैं वर्ग चयन से पीड़ित, पुष्प पक्षियों सी वे अपने ही विकास में सीमित। इस विशाल जन जीवन के जग से हो जाति विभाजित व्यापक मनुष्यत्व से वे सब आज हो रहीं वंचित! हृदय हीन, अस्तित्व मुग्ध ये वर्गों के जन निश्चित, वेश वसन भूषित बहु पुष्प-वनस्पतियों से शोभित! हुआ कभी सौन्दर्य कला युग अंत प्रकृति जीवन में, मानव जग से जाने को वह अब युग परिवर्तन में। हृदय, प्रेम के पूर्ण हृदय से निखिल प्रकृति जग शासित, जीव प्रेम के सन्मुख रे जीवन सौन्दर्य पराजित! नव वसंत की वर्ग कला का दर्शन गृह यह उपवन, सोच रहा हूँ विश्री जन जग से लगता क्या शोभन!

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