आत्मा का चिर-धन
क्या मेरी आत्मा का चिर-धन ? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन ! प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, त्रिण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;             निज सुख से ही चिर चंचल-मन, मैं हुँ परतिपल उन्मन, उन्मन । मैं प्रेमी उच्चाद्रशों का, संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शो का, जीवन के हर्ष-विमर्शों का:     लगता अपुर्ण मानव जीवन, मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन ! जग-जीवन में उल्लास मुझे, नव-आशा, नव अभिलाष मुझे, ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;     चाहिए विश्व को नवजीवन, मैं आकुल रे उन्मन, उन्मन ।

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