चंचल पग दीप-शिखा-से
चंचल पग दीप-शिखा-से धर गृह,मग, वन में आया वसन्त! सुलगा फाल्गुन का सूनापन सौन्दर्य-शिखाओं में अनन्त! सौरभ की शीतल ज्वाला से फैला उर-उर में मधुर दाह आया वसन्त, भर पृथ्वी पर स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह! पल्लव-पल्लव में नवल रुधिर पत्रों में मांसल-रंग खिला, आया नीली-पीली लौ से पुष्पों के चित्रित दीप जला! अधरों की लाली से चुपके कोमल गुलाब के गाल लजा, आया, पंखड़ियों को काले-- पीले धब्बों से सहज सजा! कलि के पलकों में मिलन-स्वप्न, अलि के अन्तर में प्रणय-गान लेकर आया, प्रेमी वसन्त,-- आकुल जड़-चेतन स्नेह-प्राण! काली कोकिल!--सुलगा उर में स्वरमयी वेदना का अँगार, आया वसन्त, घोषित दिगन्त करती भव पावक की पुकार! आः, प्रिये! निखिल ये रूप-रंग रिल-मिल अन्तर में स्वर अनन्त रचते सजीव जो प्रणय-मूर्ति उसकी छाया, आया वसन्त!

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