श्री सूर्यकांत त्रिपाठी के प्रति
छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़ कर पर्वत कारा अचल रूढ़ियों की, कवि! तेरी कविता धारा मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर-सी नि:सृत-- गलित ललित आलोक राशि, चिर अकलुष अविजित! स्फटिक शिलाओं से तूने वाणी का मंदिर शिल्पि, बनाया,-- ज्योति कलश निज यश का घर चित्त। शिलीभूत सौन्दर्य ज्ञान आनंद अनश्वर शब्द-शब्द में तेरे उज्ज्वल जड़ित हिम शिखर। शुभ्र कल्पना की उड़ान, भव भास्वर कलरव, हंस, अंश वाणी के, तेरी प्रतिभा नित नव; जीवन के कर्दम से अमलिन मानस सरसिज शोभित तेरा, वरद शारदा का आसन निज। अमृत पुत्र कवि, यश:काय तव जरा-मरणजित, स्वयं भारती से तेरी हृतंत्री झंकृत।

Read Next