वाणी
तुम वहन कर सको जन मन में मेरे विचार, वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार। भव कर्म आज युग की स्थितियों से है पीड़ित, जग का रूपांतर भी जनैक्य पर अवलंबित, तुम रूप कर्म से मुक्त, शब्द के पंख मार, कर सको सुदूर मनोनभ में जन के विहार, वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार। चित शून्य,--आज जग, नव निनाद से हो गुंजित, मन जड़,--उसमें नव स्थितियों के गुण हों जागृत, तुम जड़ चेतन की सीमाओं के आर पार झंकृत भविष्य का सत्य कर सको स्वराकार, वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार। युग कर्म शब्द, युग रूप शब्द, युग सत्य शब्द, शब्दित कर भावी के सहस्र शत मूक अब्द, ज्योतित कर जन मन के जीवन का अंधकार, तुम खोल सको मानव उर के निःशब्द द्वार, वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार।

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