विबोधन
खुले न खोले नयन, कमल फूले, खग बोले; आकुल अलि-कुल उड़े, लता-तरु-पल्लव डोले। रुचिर रंग में रँगी उमगती ऊषा आई; हँसी दिग्वधू, लसी गगन में ललित लुनाई। दूब लहलही हुई पहन मोती की माला; तिमिर तिरोहित हुआ, फैलने लगा उँजाला। मलिन रजनिपति हुए, कलुष रजनी के भागे; रंजित हो अनुराग-राग से रवि अनुरागे। कर सजीवता दान बही नव-जीवन-धारा; बना ज्योतिमय ज्योति-हीन जन-लोचन-तारा। दूर हुआ अवसाद गात गत जड़ता भागी; बहा कार्य का सोत, अवनि की जनता जागी। निज मधुर उक्ति वर विभा से है उर-तिमिर भगा रही; जागो-जागो भारत-सुअन है, जग-जननि जगा रही।

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