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जीर्णवय अम्बर-कपालिक शीर्ण, वेपथुमान पी रहा आहत दिवस का रक्त मद्य-समान। शिथिल, मद-विह्वल, प्रकंपित-वपु, हृदय हतज्ञान, गिर गया मधुपात्र कर से, गिर गया दिनमान।...

जहाँ मनुज का मन रहस्य में खो जाये, जहाँ लीन अपने भीतर नर हो जाये, भूल जाय जन जहाँ स्वकीय इयत्ता को, जहाँ पहुँच नर छुए अगोचर सत्ता को।...

धनी दे रहे सकल सर्वस्व, तुम्हें इतिहास दे रहा मान; सहस्रों बलशाली शार्दूल चरण पर चढ़ा रहे हैं प्राण।...

शब्द साथ ले गये, अर्थ जिनसे लिपटे थे। छोड़ गये हो छन्द, गूँजता है वह ऐसे, मानो, कोई वायु कुंज में तड़प-तड़प कर बहती हो, पर, नहीं पुष्प को छू पाती हो।...

दाह के आकाश में पर खोल, कौन तुम बोली पिकी के बोल? दर्द में भीगी हुई-सी तान, होश में आता हुआ-सा गान;...

संध्या की इस मलिन सेज पर गंगे ! किस विषाद के संग, सिसक-सिसक कर सुला रही तू अपने मन की मृदुल उमंग?...

कैसा होगा वह नन्दन-वन? सखि! जिसकी स्वर्ण-तटी से तू स्वर में भर-भर लाती मधुकण। कैसा होग वह नन्दन-वन? कुंकुम-रंजित परिधान किये,...

जो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो, मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो। माँग रहा जनगण कुम्हलाया बोधिवृक्ष की शीतल छाया,...

दस के हों कि पचास साल के, सभी खेलते ही तो हैं, हाँ, वय के अनुसार चाहिए उन्हें खिलौने अलग-अलग।...

उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे! बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे! भींगे भुवन सुधा-वर्षण में, उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;...

कल मुझे पूज कर चढ़ा गया अलि कौन अपरिचित हृदय-हार? मैं समझ न पाई गृढ़ भेद, भर गया अगुर का अन्धकार।...

व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने ! भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं, उड़ न सकते हम धुमैले स्वप्न तक, शक्ति हो तो आ, बसा अलका यहीं। ...

कैसे समझोगे कि कौन प्रतिभाशाली है? प्रतिभा के लक्षण अनेक हैं, किन्तु, कभी जब सभी गधे मिल एक व्यक्ति पर लात चलायें, अजब नहीं, वह व्यक्ति महाप्रतिभाशाली हो।...

गा रही कविता युगों से मुग्ध हो, मधुर गीतों का न पर, अवसान है। चाँदनी की शेष क्यों होगी सुधा, फूल की रुकती न जब मुस्कान है?...

हँस उठी कनक-प्रान्तर में जिस दिन फूलों की रानी, तृण पर मैं तुहिन-कणों की पढ़ता था करुण कहानी।...

हरि के करुणामय कर का जिस पर प्रसार है, उसे जगत भर में निज गृह सबसे प्यारा लगता है।...

चिंताओं से भरा हुआ जीवन वह भी किस काम का, विरम सके दो घड़ी नहीं यदि हम फूलों के सामने।...

जीवन के इस शून्य सदन में जलता है यौवन-प्रदीप; हँसता तारा एकान्त गगन में। जीवन के इस शून्य सदन में। पल्लव रहा शुष्क तरु पर हिल,...

मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट!...

पथ की जलती हुई भूमि पर मैंने देखा ध्यानमग्न बूढ़े गिरगिट को (गिरगिट यानी एक बूँद घड़ियाल की) खड़ा, देह को ताने पहने हरा कोट,...

सात रंगों के दिवस, सातो सुरों की रात, साँझ रच दूँगा गुलावों से, जवा से प्रात। पाँव धरने के लिए पथ में मसृण, रंगीन, भोर का दूँगा बिछा हर रोज मेघ नवीन।...

युग मरे, सदियाँ गईं मर, किन्तु, ओ बीते हुए कल! क्या हुआ तुमको कि तुम अब भी नहीं मरते? घेरते हर रोज क्यों मुझको मलिन अपने क्षितिज से? नित्य सुख को आँसुओं से सिक्त क्यों करते?...

जा रही देवता से मिलने? तो इतनी कृपा किये जाओ। अपनी फूलों की डाली में दर्पण यह एक लिये जाओ।...

ज्ञान अर्जित कर हमें फिर प्राप्त क्या होता? सिर्फ इतनी बात, हम सब मूर्ख हैं।...

जा रहीं देवता से मिलने ? तो इतनी कृपा किये जाओ। अपनी फूलों की डाली में दर्पण यह एक लिये जाओ।...

बाग में खिला था कहीं अल्हड़ गुलाब एक, गरम लहू था, अभी यौवन के दिन थे; ताना मार हँसा एक माली के बुढ़ापे पर, "लटक रहे हैं कब्र-बीच पाँव इसके।"...

लोग कहते हैं कि तुम हर रोज भटके जा रहे हो, और यह सुन कर मुझे भी खेद होता है। पर, तुरत मेरे हृदय का देवता कहता, चुप रहो, मंत्रित्व ही सब कुछ नहीं है।...

नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ। प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती; रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती;...

सूखे विटप की सारिके ! उजड़ी-कटीली डार से मैं देखता किस प्यार से पहना नवल पुष्पाभरण...

जब-तब ही देखते व्यक्तियों में हम पागल, पर, समूह का तो पागलपन नित्य धर्म है।...

हृदय छोटा हो, तो शोक वहां नहीं समाएगा। और दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा।...

देश में जिधर भी जाता हूँ, उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ "जड़ता को तोड़ने के लिए भूकम्प लाओ।...

मैं रात के अँधेरे में सिताओं की ओर देखता हूँ जिन की रोशनी भविष्य की ओर जाती है अनागत से मुझे यह खबर आती है ...

सीखे नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं, जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ; या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो। ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के?...

यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से...

सीखो नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं, जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ; या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो। ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के?...

लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल, नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।...

स्वर्ग की जो कल्पना है, व्यर्थ क्यों कहते उसे तुम? धर्म बतलाता नहीं संधान यदि इसका? स्वर्ग का तुम आप आविष्कार कर लेते।...

जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल...

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं बँधा हूँ, स्वप्न हूँ, लघु वृत हूँ मैं नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं...