कोयल
कैसा होगा वह नन्दन-वन? सखि! जिसकी स्वर्ण-तटी से तू स्वर में भर-भर लाती मधुकण। कैसा होग वह नन्दन-वन? कुंकुम-रंजित परिधान किये, अधरों पर मृदु मुसकान लिए, गिरिजा निर्झरिणी को रँगने कंचन-घट में सामान लिये। नत नयन, लाल कुछ गाल किये, पूजा-हित कंचन-थाल लिये, ढोती यौवन का भार, अरुण कौमार्य-विन्दु निज भाल दिये। स्वर्णिम दुकूल फहराती-सी, अलसित, सुरभित, मदमाती-सी, दूबों से हरी-भरी भू पर आती षोडशी उषा सुन्दर। हँसता निर्झर का उपल-कूल लख तृण-तरु पर नव छवि-दुकूल; तलहटी चूमती चरण-रेणु, उगते पद-पद पर अमित फूल। तब तृण-झुर्मुट के बीच कहाँ देते हैं पंख भिगो हिमकन? किस शान्त तपोवन में बैठी तू रचती गीत सरस, पावन? यौवन का प्यार-भरा मधुवन, खेलता जहाँ हँसमुख बचपन, कैसा होगा वह नन्दन-वन? गिरि के पदतल पर आस-पास मखमली दूब करती विलास। भावुक पर्वत के उर से झर बह चली काव्यधारा (निर्झर) हरियाली में उजियाली-सी पहने दूर्वा का हरित चीर नव चन्द्रमुखी मतवाली-सी; पद-पद पर छितराती दुलार, बन हरित भूमि का कंठ-हार। तनता भू पर शोभा-वितान, गाते खग द्रुम पर मधुर गान। अकुला उठती गंभीर दिशा, चुप हो सुनते गिरि लगा कान। रोमन्थन करती मृगी कहीं, कूदते अंग पर मृग-कुमार, अवगाहन कर निर्झर-तट पर लेटे हैं कुछ मृग पद पसार। टीलों पर चरती गाय सरल, गो-शिशु पीते माता का थन, ऋषि-बालाएँ ले-ले लघु घट हँस-हँस करतीं द्रुम का सिंचन। तरु-तल सखियों से घिरी हुई, वल्कल से कस कुच का उभार, विरहिणि शकुन्तला आँसु से लिखती मन की पीड़ा अपार, ऊपर पत्तों में छिपी हुई तू उसका मृदु हृदयस्पन्दन, अपने गीतों का कड़ियों में भर-भर करती कूजित कानन। वह साम-गान-मुखरित उपवन। जगती की बालस्मृति पावन! वह तप-कनन! वह नन्दन-वन! किन कलियों ने भर दी श्यामा, तेरे सु-कंठ में यह मिठास? किस इन्द्र-परी ने सिखा दिया स्वर का कंपन, लय का विलास? भावों का यह व्याकुल प्रवाह, अन्तरतम की यह मधुर तान, किस विजन वसन्त-भरे वन में सखि! मिला तुझे स्वर्गीय गान? थे नहा रहे चाँदनी-बीच जब गिरि, निर्झर, वन विजन, गहन, तब वनदेवी के साथ बैठ कब किया कहाँ सखि! स्वर-साधन? परियों का वह शृंगार-सदन! कवितामय है जिसका कन-कन! कैसा होगा वह नन्दन-वन!

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