वैभव की समाधि पर
हँस उठी कनक-प्रान्तर में जिस दिन फूलों की रानी, तृण पर मैं तुहिन-कणों की पढ़ता था करुण कहानी। थी बाट पूछती कोयल ऋतुपति के कुसुम-नगर की, कोई सुधि दिला रहा था तब कलियों को पतझर की। प्रिय से लिपटी सोई थी तू भूल सकल सुधि तन की, तब मौत साँस में गिनती थी घडियाँ मधु-जीवन की। जब तक न समझ पाई तू मादकता इस मधुवन की, उड़ गई अचानक तन से कपूरि-सुरभि यौवन की। वैभव की मुसकानों में थी छिपी प्रलय की रेखा, जीवन के मधु-अभिनय में बस, इतना ही भर देखा। निर्भय विनाश हँसता था सुख-सुषमा के कण-कण में, फूलों की लूट मची थी माली-सम्मुख उपवन में। माताएँ अति ममता से अंचल में दीप छिपाती थी घूम रही आँगन में अपने सुख पर इतराती। उस ओर गोद से छिनकर फूलों का शव जाता था, पर, राजदूत आँसू पर कुछ तरस नहीं खाता था। धुल रही कहीं बालाओं के नव सुहाग की लाली, थी सूख रही असमय ही कितने तरुओं की डाली। मैं ढूँढ रहा था आकुल जीवन का कोना-कोना, पाया न कहीं कुछ, केवल किस्मत में देखा रोना। कलिका से भी कोमल पद हो गये वन्य-मगचारी, थे माँग रहे मुकुटों में भिक्षा नृप बने भिखारी। उन्नत सिर विभव-भवन के चूमते आज धूलों को, खो रही सैकतों में सरि, तज चली सुरभि फूलों को। है भरा समय-सागर में जग की आँखों का पानी, अंकित है इन लहरों पर कितनों की करुण कहानी। बीते वैभव के कितने सपने इसमें उतराते, जानें, इसके गह्वर में कितने निज राग गुँजाते। अरमानों के ईंधन में ध्वंसक ज्वाला सुलगा कर कितनों ने खेल किया है यौवन की चिता बनाकर। दो गज़ झीनी कफनी में जीवन की प्यास समेटे सो रहे कब्र में कितने तनु से इतिहास लपेटे। कितने उत्सव-मन्दिर पर जम गई घास औ’ काई, रजनी भर जहाँ बजाते झींगुर अपनी शहनाई। यह नियति-गोद में देखो, मोगल-गरिमा सोती है, यमुना-कछार पर बैठी विधवा दिल्ली रोती है। खो गये कहाँ भारत के सपने वे प्यारे-प्यारे? किस गगनाङ्गण में डूबे वह चन्द्र और वे तारे? जयदीप्ति कहाँ अकबर के उस न्याय-मुकुट मणिमय की? छिप गई झलक किस तम में मेरे उस स्वर्ण-उदय की? वह मादक हँसी विभव की मुरझाई किस अंचल में? यमुने! अलका वह मेरी डूबी क्या तेरे जल में? मेरा अतीत वीराना भटका फिरता खँडहर में, भय उसे आज लगता है आते अपने ही घर में। बिजली की चमक-दमक से अतिशय घबराकर मन में वह जला रहा टिमटिम-सा दीपक झंखाड़ विजन में। दिल्ली! सुहाग की तेरे बस, है यह शेष निशानी। रो-रो, पतझर की कोयल, उजड़ी दुनिया की रानी। कह, कहाँ सुनहले दिन वे? चाँदी-सी चकमक रातें? कुंजों की आँखमिचौनी? हैं कहाँ रसीली बातें? साकी की मस्त उँगलियाँ? अलसित आँखें मतवाली? कम्पित, शरमीला चुम्बन? है कहाँ सुरा की प्याली? गूँजतीं कहाँ कक्षों में कड़ियाँ अब मधु गायन की? प्रिय से अब कहाँ लिपटती तरुणी प्यासी चुम्बन की? झाँकता कहाँ उस सुख को लुक-छिप विधु वातायन से? फिर घन में छिप जाता है मादकता चुरा अयन से! वे घनीभूत गायन-से अब महल कहाँ सोते हैं? वे सपने अमर कला के किस खँडहर में रोते हैं? वह हरम कहाँ मुगलों की? छवियों की वह फुलवारी? है कहाँ विश्व का सपना, वह नूरजहाँ सुकुमारी? स्वप्निल विभूति जगती की, हँसता यह ताजमहल है। चिन्तित मुमताज़-विरह में रोता यमुना का जल है। ठुकरा सुख राजमहल का, तज मुकुट विभव-जल-सीचे, वह, शाहजहाँ सोते हैं अपनी समाधि के नीचे। कैसे श्मशान में हँसता रे, ताजमहल अभिमानी दम्पति की इस बिछुड़न पर आता न आँख में पानी? तू खिसक, भार से अपने ताज को मुक्त होने दे, प्रिय की समाधि पर गिर कर पल भर उसको रोने दे। किस-किसके हित मैं रोऊँ? पूजूँ किसको दृग-जल से? सबको समाधि ही प्यारी लगती है यहाँ महल से। तज कुसुम-सेज, निज प्रिय का परिरम्भण-पाश छुड़ाकर कुछ सुन्दरियाँ सोई हैं वह, उधर कब्र में जाकर। जिस पर झाड़ी-झुरमुट में खरगोश खुरच बिल करते, निशि-भर उलूक गाते औ’ झींगुर अपना स्वर भरते। चुपके गम्भीर निशा में दुनिया जब सो जाती है, तब चन्द्र-किरण मलयानिल को साथ लिये आती है। कहती- "सुन्दरि! इस भू पर फिर एक बार तो आओ, नीरस जग के कण-कण में माधुरी-स्रोत सरसाओ।" तब कब्रों के नीचे से कोई स्वर यों कहता है, "चंद्रिके! कहाँ आई हो? क्यों अनिल यहाँ बहता है? "वैभव-मदिरा पी-पीकर हो गई विसुध मतवाली, तो भी न कभी भर पाई जीवन की छोटी प्याली। "इस तम में निज को खोकर मैं उसको भर पाई हूँ, छेड़ती मुझे क्यों अब तू? तेरा क्या ले आई हूँ? उस ओर, जहाँ निर्जन में कब्रों का बसा नगर है; ढह एक राजगृह सुन्दर बन गया शून्य खँडहर है। उस भग्न महल के उर में विधवा-सी सुषमा बसती, टूटे-फूटे अंगों में संध्या-सी कला बिहँसती। पावस ने उसे लगा दी विधवा-चंदन-सी काई। जम गये कहीं वट, पीपल, कुछ घास कहीं उग आई। नीरव निशि में विधु आकर किरणों से उसे नहाता; प्रेयसि-समाधि पर चुपके प्रेमी ज्यों अश्रु बहाता। उस क्षण, उसके आनन पर सुषमा सजीव खिल आती; उर की कृतज्ञता आँसू बन दूबों पर छा जाती। मूर्छित स्वर एक विजन से उठ टकराता अम्बर में, गूँजता एक क्रन्दन-सा झंखाड़ शून्य खँडहर में। जो कह जाता, "छवि पर मत भूलो जीवन नश्वर है, वैभव के ही उपवन में उस सर्वनाश का घर है।" तृण पर जब ओस-कणों को ऊषा रँगने आती है, सुख, सौरभ, श्री, सोने से जगती जब भर जाती है; वृद्धा तब एक यहाँ तक आती कुटीर से चलके जिसके सम्मुख बीते हैं स्वर्णिम दिन भग्न महल के। अपलक उदास आँखों से विस्मित भूली अपने को, खोजती भग्न खँडहर में वह गत वैभव-सपने को। सोचती- "राज-सिंहासन उस ऊँचे टीले पर था, उस ताल-निकट हय-गज थे, रानी का महल उधर था। "थीं सिंह-द्वार हो आती सेनाएँ विजय-समर से, उत्सव करने उस थल पर आते थे लोग नगर से।" तूफान एक उठ जाता इतने में उसके मन में, वह मन-ही-मन रोती है, छा जाते अश्रु नयन में। क्या कहूँ, शून्य निशि रोती सुन कितनी करुण पुकारें; संस्मृति ले सिसक रही हैं कितनी सुनसान मज़ारें? जगती की दीन दशा पर रोते निशीथ में तारे, सिसका फिरता सूने में मलयानिल सरित-किनारे। रोता भावुक मन मेरा, कैसे इसको बहलाऊँ? पृथिवी श्मशान है सारी, तज इसे कहाँ मैं जाऊँ? है भरा विश्व-नयनों में उन्माद प्रलय-आसव का, पद-पद पर इस मरघट में सोता कंकाल विभव का। यह नालन्दा-खँडहर में सो रहा मगध बलशाली। लिच्छवियों की तुरबत पर वह कूक रही वैशाली। ढूँढ़ते चिह्न गौतम के, मन-ही-मन कुछ अकुलाती, वन, विपिन, गाँव, नगरों से गंगा है बहती जाती। कण-कण में सुप्त विभव है, कैसे मैं छेड़ जगाऊँ? बीते युग के गायन को अब किसके स्वर में गाऊँ? लेखनी! धीर धर मन में, अब ये आवाहन ठहरें। उठती ही इस सागर में रहती सुख-दुख की लहरें। युग-युग होता जायेगा अभिनय यह हास-रुदन का, कुछ मिट्टी से ही होगा नित मोल मधुर जीवन का। रज-कण में गिरि लोटेंगे, सूखेंगी झिलमिल नदियाँ, सदियों के महाप्रलय पर रोती जायेंगी सदियाँ। मैं स्वयं चिता-रथ पर चढ़ निज देश चला जाऊँगा। सपनों की इस नगरी में जानें फिर कब आऊँगा? तब कुशल पूछता मेरी कोई राही आयेगा, नभ की नीरव वाणी में यह उत्तर सुन पायेगा-- "मैंने देखा उस अलि को कविता पर नित मँडराते, वैभव के कंकालों को लखकर अवाक रह जाते। "आजीवन वह विस्मित था लख जग पर छाँह प्रलय की, था बाट जोहता निशि-दिन भू पर अमरत्व-उदय की। "पर, स्वयं एक दिन वह भी हो गया विलीन अनल में, वह अब सुख से सोता है प्रभु के शास्वत अंचल में।" सुन इस सिहर जायेगा पल भर उस राही का मन, ताकेगा वह ज्यों नभ को, छलकेंगे त्यों आँसू-कण।

Read Next