स्वर्ण-घन
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे! बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे! भींगे भुवन सुधा-वर्षण में, उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में; भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे! उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे! गरजे गुरु-गंभीर घनाली, प्रमुदित उड़ें मराल-मराली, खुलें जगत के जड़ित-अन्ध रस के वातायन हे! उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे! बरसे रिम-झिम रंग गगन से, भींगे स्वप्न निकल मन-मन से, करे कल्पना की तरंग पर मानव नर्तन हे! उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे! जय हो, रंजित धनुष बढ़ाओ, भू को नभ के साथ मिलाओ, भरो, भरो, भू की श्रुति में निज अनुरंजन स्वन हे! उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

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