व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने!
व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने ! भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं, उड़ न सकते हम धुमैले स्वप्न तक, शक्ति हो तो आ, बसा अलका यहीं। फूल से सज्जित तुम्हारे अंग हैं और हीरक-ओस का श्रृंगार है, धूल में तरुणी-तरुण हम रो रहे, वेदना का शीश पर गुरु भार है। अरुण की आभा तुम्हारे देश में, है सुना, उसकी अमिट मुसकान है; टकटकी मेरी क्षितिज पर है लगी, निशि गई, हँसता न स्वर्ण-विहान है। व्योम-कुंजों की सखी, अयि कल्पने ! आज तो हँस लो जरा वनफूल में रेणुके ! हँसने लगे जुगनू, चलो, आज कूकें खँडहरों की धूल में।

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