संजीवन-घन दो
जो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो, मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो। माँग रहा जनगण कुम्हलाया बोधिवृक्ष की शीतल छाया, सिरजा सुधा, तृषित वसुधा को संजीवन-घन दो। मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो। तप कर शील मनुज का साधें, जग का हृदय हृदय से बाँध, सत्य हेतु निष्ठा अशोक की, गौतम का प्रण दो। मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो। देख सकें सब में अपने को, महामनुजता के सपने को, हे प्राचीन! नवीन मनुज को वह सुविलोचन दो। मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो। खँडहर की अस्तमित विभाओ, जगो, सुधामयि! दरश दिखाओ, पीड़ित जग के लिए ज्ञान का शीतल अंजन दो। मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।

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