संध्या
जीर्णवय अम्बर-कपालिक शीर्ण, वेपथुमान पी रहा आहत दिवस का रक्त मद्य-समान। शिथिल, मद-विह्वल, प्रकंपित-वपु, हृदय हतज्ञान, गिर गया मधुपात्र कर से, गिर गया दिनमान। खो गई चूकर जलद के जाल में मद-धार; नीलिमा में हो गया लय व्योम का शृंगार। शान्त विस्मित भूमि का गति-रोर; एक गहरी शान्ति चारों ओर। कौन तम की आँख-सा कढ़कर प्रतीची-तीर दिग्विदिक निस्तब्धता को कर रहा गंभीर? ज्योति की पहली कली, तम का प्रथम उडु-हंस, यह उदित किस अप्सरी का एक श्रुति-अवतंस? व्योम के उस पार अन्तर्धान, श्याम संध्या का निवास-स्थान। दिवस-भर छिपकर गगन के पार सजती अभिसार के शृंगार; और ज्यों होता दिवा का अंत, जोहती आकर किसी का पंथ। एक अलका व्योम के उस ओर; यक्षिणी कोई विषाद-विभोर; खोजती फिरती न मिलते कान्त; बीतते जाते अमित कल्पान्त; वेदना बजती कठिन मन-माँझ; पल गिना करती कि हो कब साँझ अश्रु से भींगी, व्यथा से दीन; ऊँघती प्रिय-स्वप्न में तल्लीन। षोड़शी, तिमिराम्बरा सुकुमार; भूलुठित, पुष्पित लता-सी म्लान, छिन्नाधार। सिक्त पलदल, मुक्त कुन्तल-जाल; ग्रीव से उतरी, अचुम्बित, त्यक्त पाटल-माल। एक अलका व्योम के उस ओर, यक्षिणी कोई विषाद-विभोर। खोजती फिरती, न मिलते कान्त, बीतते जाते अमित कल्पान्त। दीप्ति खोई, खो गया दिनमान; व्योम का सारा महल सुनसान; शून्य में हो, स्यात, खोया प्यार; विजन नभ में इसलिए अभिसार। उडु नहीं, तम में न उज्जवल हंस, शुक्र, संध्या का कनक-अवतंस। शान्त! पृथ्वी! रोक ले निज रोर, शांति! गहरी शान्ति हो सब ओर। नीलिमा-पट खोलकर सायास आ रही संध्या मलीन, उदास। देखती अवनत धरणि की ओर, बेदना-पूरित, विषाद-विभोर। शून्य की अभिसारिका अति दीन, शून्य के ही प्राण-सी रवहीन। उठ रहे पल मन्दगति निस्पन्द, ज रहे बिछते गगन पर अश्रु-विन्दु अमन्द। साधना-सी मग्न, स्वप्न-विलीन, निःस्व की आराधना-सी शून्य, वेगविहीन। पर्ण-कुंजों में न मर्मर-गान; सो गया थककर शिथिल पवमान। अब न जल पर रश्मि विम्बित लाल; मूँद उर में स्वप्न सोया ताल। सामने द्रुमराजि तमसाकार, बोलते तम में विहग दो-चार; झींगुरों में रोर खग के लीन; दीखते ज्यों एक रव अस्पष्ट, अर्थविहीन। दूर-श्रुत अस्फुट कहीं की तान, बोलते मानों, तिमिर के प्राण। व्योम से झरने लगा तमचूर्ण-संग प्रमाद, तारकों से भूमि को आने लगा संवाद। सघन, श्याम विषाद का अंचल तिमिर पर डाल, शान्त कर से छू रही संध्या भुवन का भाल। सान्त्वना के स्पर्श से श्रम भूल, सो रहे द्रुम पर उनिंदे फूल। झुक गए पल्लव शिथिल, साभार; ऊँघने अलसित लगा संसार। शान्ति, गहरी शान्ति चारों ओर एक मेरे चित्त में कल रोर:- भूमि से आकाश तक जिसका अनन्त प्रसार, बाँध लूँ उसको भुजा में युग्म बाँह पसार। मैं बढ़ाता बाहुओं का पाश, व्यंग्य से हँसता निखिल आकाश। बन्ध से बाहर खड़ा निस्सीम का विस्तार, भुज-परिधि का कुछ तिमिर, कुछ शून्य पर अधिकार। याद कर, जानें न, किसका प्यार, गिर गए दो अश्रु-कण सुकुमार। आँसुओं की दो कनी इस साँझ का वरदान, अश्रु के दो विन्दु पिछली प्रीति की पहचान। अश्रु दो निस्सीम के पद पर हृदय का प्यार, सान्त का स्मृति-चिह्न पावन, क्षुद्रतम उपहार।

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