गीतवासिनी
सात रंगों के दिवस, सातो सुरों की रात, साँझ रच दूँगा गुलावों से, जवा से प्रात। पाँव धरने के लिए पथ में मसृण, रंगीन, भोर का दूँगा बिछा हर रोज मेघ नवीन। कंठ में मोती नहीं, उजली जुही की माल, अंग पर दूँगा उढ़ा मृदु चाँदनि का जाल। दूब की ले तूलिका, ले नीलिमा से वारि, आँक दूँगा दो धनुष भ्रू-देश पर सुकुमारि। श्रवन के ताटंक दो, पीले कुसुम सुकुमार, पहुँचियों के दो वलय, उजली कली के हार। स्वर्णदीप्त ललाट पर दे एक टीका लाल, बाल-रवि से आँक दूँगा चंद्रमा का भाल। आँख में काली घटा, उर में प्रणय की प्यास, साँस में दूँगा मलय का पूर्ण भर उच्छ्वास। चाँद पर लहरायेगी दो नागिनें अनमोल, चूमने को गाल दूँगा दो लटों को खोल। वक्र धन्वा पर चढ़ा दूँगा कुसुम के तीर, मत्त यौवन-नाग पर लावण्य की जंजीर। कल्पना-जग में बनाऊँगा तुम्हारा वास, और ही धरती जहाँ, कुछ और ही आकाश। स्वप्न मेरे छानते फिरते निखिल संसार, रोज लाते हैं नया कुछ रूप का शृंगार। दूब के अंकुर कभी बौरे बकुल के फूल, पद्म के केशर कभी कुछ केतकी की धूल। साँझ की लाली वधू की लाज की उपमान, चंद्रमा के अंक में सिमटी निशा के गान, देखती अपलक अपरिचित पुरुरुवा की ओर, उर्वशी की आँख की मद से लबालब कोर, प्रथम रस-परिरंभ से कंपित युवति का वेश, थरथराते-से अधर-पुट, आलुलायित केश। चूस कर औचक जलद को भाग जाना दूर, दामिनी का वह निराला रूप मद से चूर। रवि-करों के स्पर्श से होकर विकल, कुछ ऊब, कमलिनी का वारि में जाना कमर तक डूब। ताल में तन, किन्तु, मन निशिभर शशी में लीन, कुमुदिनी की आँख आलस-युक्त, निद्रा-हीन। स्वप्न की संपत्ति सारी, प्राण का सब प्यार, पास हैं जो भी विभव, दूँगा तुम्हीं पर वार। नग्न उँगली की पहुँच के पार है जो देश, है जहाँ रहता अलभ आदर्श उज्ज्वल-वेश। उस धरातल पर करूँगा मैं तुम्हें आसीन, ताल में भी तुम रहोगी वारि-पंक-विहीन। निज रुधिर के ताप से जलने न दूँगा अंग, तुम रहोगी साथ रहकर भी सदा निःसंग। गीत में ढोता फिरूँगा, भाग्य अपना मान, तुम जियोगी विश्व में बन बाँसुरी की तान। बाँसुरी की तान वह, जिसमें सजीव, अधीर, डोलती होगी तुम्हारी मोहिनी तस्वीर। रक्त की दुर्जय क्षुधा, दारुण त्वचा कि प्यास, गीत बनकर छा रही होंगी धरा-आकाश। तुम बजोगी जब, बजेगी चूमने की चाह, तुम बजोगी जब, बजेगी आग-जैसी आह। तुम बजोगी जब, बजेंगे आँसुओं के तार, बज उठेगी विश के प्रति रोम से झंकार। विश्व तुमको घेरकर कलरव करेगा, फूल का उपहार ला आगे धरेगा। कुछ तुम्हारी छवि हृदय पर आँक लेंगे; गीत के भीतर तुम्हें कुछ झाँक लेंगें। कंठ में जाकर बसोगी तुम किसी के। प्राण में जाकर हँसोगी तुम किसी के। मैं मुदित हूँगा कि जिस पर लुट रहा संसार, वह न कोई और, मेरे गीत की गलहार।

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