कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि, तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक। कर रहे निर्जन का चुपचाप, प्रभा की धारा से अभिषेक?...
"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह!तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग?...
ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई। ...
"मधुमय वसंत जीवन-वन के, बह अंतरिक्ष की लहरों में। कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में?...
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ? जब सावन घन सघन बरसते इन आँखों की छाया भर थे सुरधनु रंजित नवजलधर से- ...
उषा का प्राची में अभ्यास, सरोरुह का सर बीच विकास॥ कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध? गगन मंडल में अरुण विलास॥...
सुरा सुरभिमय बदन अरुण, वे नयन भरे आलस अनुराग़। कल कपोल था जहाँ बिछलता, कल्पवृक्ष का पीत पराग। ...
तुम कनक किरन के अंतराल में लुक छिप कर चलते हो क्यों ? नत मस्तक गवर् वहन करते यौवन के घन रस कन झरते...
तप्त हृदय को जिस उशीर-गृह का मलयानिल शीतल करता शीघ्र, दान कर शान्ति को अखिल जिसका हृदय पुजारी है रखता न लोभ को स्वयं प्रकाशानुभव-मुर्ति देती न क्षोभ जो ...
उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, क्षितिज बीच अरुणोदय कांत। लगे देखने लुब्ध नयन से, प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत। ...
उदित कुमुदिनी-नाथ हुए प्राची में ऐसे सुधा-कलश रत्नाकार से उठाता हो जैसे धीरे-धीरे उठे गई आशा से मन में क्रीड़ा करने लगे स्वच्छ-स्वच्छन्द गगन में...
मधुर-मधुर अलाप करते ही पिय-गोद में मिठा सकल सन्ताप, वैदेही सोने लगी पुलकित-तनु ये राम, देख जानकी की दशा सुमन-स्पर्श अभिराम, सुख देता किसको नहीं...
सोते अभी खग-वृन्द थे निज नीड़ में आराम से ऊषा अभी निकली नहीं थी रविकरोज्ज्वल-दास से केवल टहनियाँ उच्च तरूगण की कभी हिलती रहीं मलयज पवन से विवस आपस में कभी मिलती रहीं...
सीता ने जब खोज लिया सौमित्र को तरू-समीप में, वीर-विचित्र चरित्र को ‘लक्ष्मण ! आवो वत्स, कहाँ तुम चढ़ रहे’ प्रेम-भरे ये वचन जानकी ने कहे...
तुम्हारी आँखों का बचपन! खेलता था जब अल्हड़ खेल, अजिर के उर में भरा कुलेल, हारता था हँस-हँस कर मन,...
क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है भारी भोझा लाद लिया न सँभार है छल छालों से पैर छिले न उबार है...
शशि सी वह सुंदर रूप विभा छाहे न मुझे दिखलाना। उसकी निर्मल शीतल छाया हिमकन को बिखरा जाना।...
कितने दिन जीवन जल-निधि में - विकल अनिल से प्रेरित होकर लहरी, कूल चूमने चल कर उठती गिरती सी रुक-रुक कर...
शरद का सुंदर नीलाकाश निशा निखरी, था निर्मल हास बह रही छाया पथ में स्वच्छ सुधा सरिता लेती उच्छ्वास...
सिन्धु कभी क्या बाड़वाग्नि को यों सह लेता कभी शीत लहरों से शीतल ही कर देता रमणी-हृदय अथाह जो न दिखालाई पड़ता तो क्या जल होकर ज्वाला से यों फिर लड़ता...
निधरक तूने ठुकराया तब मेरी टूटी मधु प्याली को, उसके सूखे अधर मांगते तेरे चरणों की लाली को।...
शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना...
उस दिन जब जीवन के पथ में, छिन्न पात्र ले कम्पित कर में, मधु-भिक्षा की रटन अधर में, इस अनजाने निकट नगर में,...
आह रे, वह अधीर यौवन ! मत्त-मारुत पर चढ़ उद्भ्रांत , बरसने ज्यों मदिरा अश्रांत- सिंधु वेला-सी घन मंडली,...
दूर हटे रहते थे हम तो आप ही क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते- हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया...
विमल इन्दु की विशाल किरणें प्रकाश तेरा बता रही हैं अनादि तेरी अन्नत माया जगत् को लीला दिखा रही हैं...
देख रहा हूँ, यह कैसी कमनीयता छाया-सी कुसुमित कानन में छा रही अरे, तुम्हारा ही यह तो प्रतिबिम्ब है क्यों मुझको भुलवाते हो इनमे ? अजी...
वेेगपूर्ण है अश्व तुम्हारा पथ में कैसे कहाँ जा रहे मित्र ! प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता...
कोलाहल क्यों मचा हुआ है ? घोर यह महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा अथवा तापाें के मिस से हुंकार यह करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा...
हिमगिरि का उतुंग श्रृंग है सामने खड़ा बताता है भारत के गर्व को पड़ती इस पर जब माला रवि-रश्मि की मणिमय हो जाता है नवल प्रभात में...
मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त, विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त, प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर...
हँसी आती हैं मुझको तभी, जब कि यह कहता कोई कहीं- अरे सच, वह तो हैं कंगाल, अमुक धन उसके पास नहीं।...
किरण! तुम क्यों बिखरी हो आज, रँगी हो तुम किसके अनुराग, स्वर्ण सरजित किंजल्क समान, उड़ाती हो परमाणु पराग।...
भारत का सिर आज इसी सरहिन्द मे गौरव-मंडित ऊँचा होना चाहता अरूण उदय होकर देता है कुछ पता करूण प्रलाप करेगा भैरव घोषणा...
अहो, यही कृत्रिम क्रीड़ासर-बीच कुमुदिनी खिलती थी हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थीं...
बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन? उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।...
सुन्दरी प्रााची विमल ऊषा से मुख धोने को है पूर्णिमा की रात्रि का शश्ाि अस्त अब होने को है तारका का निकर अपनी कान्ति सब खोने को है स्वर्ण-जल से अरूण भी आकाश-पट धोने को है...
आँखों से अलख जगाने को, यह आज भैरवी आई है उषा-सी आँखों में कितनी, मादकता भरी ललाई है ...
मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं। आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो- स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन। शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से...
अपने सुप्रेम-रस का प्याला पिला दे मोहन तेरे में अपने को हम जिसमें भुला दें मोहन निज रूप-माधुरी की चसकी लगा दे मुझको मुँह से कभी न छूटे ऐसी छका दे मोहन ...