चित्रकूट (2)
मधुर-मधुर अलाप करते ही पिय-गोद में मिठा सकल सन्ताप, वैदेही सोने लगी पुलकित-तनु ये राम, देख जानकी की दशा सुमन-स्पर्श अभिराम, सुख देता किसको नहीं नील गगन सम राम, अहा अंक में चन्द्रमुख अनुपम शोभधाम आभूषण थे तारका खुले हुए कच-भार बिखर गये थे बदन पर जैसे श्याम सिवार आसपास हो कमल के कैसा सुन्दर दृश्य ! लता-पत्र थे हिल रहे जैसे प्रकृति अदृश्य, बहु कर से पंखा झले निर्निमेष सौन्दर्य, देख जानकी-अंग का नृपचूड़ामणिवर्य राम मुग्ध-से हो रहे ‘कुछ कहना है आर्य’ बोले लक्ष्मण दूर से ‘ऐसा ही है कार्य, इससे देता कष्ट हूँ’ राघव ने सस्नेह कहा--‘कहो, क्या बात है कानन हो या गेह, लक्ष्मण तुम चिरबन्धु हो फिर कैसा संकोच ? आओ, बैठो पास में करो न कुछ भी सोच, निर्भय होकर तुम कहो’ पाकर यह सम्मान, लक्ष्मन ने सविनय कहा-- ‘आर्य ! आपका मान, यश, सदैव बढ़ता रहे फिरता हूँ मैं नित्य, इस कानन में ध्यान से परिचय जिसमें सत्य मिले मुझे इस स्थान का अभी टहलकर दूर, ज्योंही मै लौटा यहाँ एक विकटमुख क्रूर भील मिला उस राह में मेरा आना जान, उठा सजग हो भील वह मैने शर सन्धान किया जानकर शत्रु को किन्तु, क्षमा प्रति बार, माँगा उसने नम्र हो रूका हमारा वार, पूछा फिर--‘तुम कौन हो’ उसने फिर कर जोड़ कहा--‘दास हूँ आपका चरण कमल को छोड़, और कहाँ मुझको शरण, निषादपति का दूत मैं प्रेरित आया यहाँ कहना है करतूत भरत भूमिपति का प्रभो सजी सैन्य चतुरड़्ग बलशाली ले साथ में किये और ही ढंग, आते हैं इस ओंर को’ पुलकित होकर राम बोले लक्ष्मण वीर से-- ‘और नहीं कुछ काम मिलने आते हैं भरत’

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