निधरक तूने ठुकराया तब
निधरक तूने ठुकराया तब मेरी टूटी मधु प्याली को, उसके सूखे अधर मांगते तेरे चरणों की लाली को। जीवन-रस के बचे हुए कन, बिखरे अमर में आँसू बन, वही दे रहा था सावन घन- वसुधा की हरियाली को। निदय ह्रदय में हूक उठी क्या, सोकर पहली चूक उठी क्या, अरे कसक वह कूक उठी क्या, झंकृत कर सुखी डाली को? प्राणों के प्यासे मतवाले- ओ झंझा से चलने वाले! ढलें और विस्मृति के प्याले, सोच न कृति मिटने वाली को।

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