शिल्प सौन्दर्य
कोलाहल क्यों मचा हुआ है ? घोर यह महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा अथवा तापाें के मिस से हुंकार यह करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा नहीं; महा संघर्षण से होकर व्यथित हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा आर्यमंदिरों के सब ध्वंस बचे हुए धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में-- उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये जिससे देख न सकते वे कर्तव्य-पथ दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो बालू की दींवाल मुगल-साम्राज्य की आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी जिसे, अपने कर से खोदा आलमगीर ने मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल कर कँपने-से लगे ! अहो यह क्या हुआ मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से धूमकेतु-से सूर्यमल्ल समुदित हुए सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश प्रतिहिंसा-पूरित वीरों की मण्डली व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में मुगल-महीपाें के आवासादिक बहुत टूट चुके हैं, आम खास के अंश भी किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल हैं मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा-पूर्ण हे सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो मोती-मस्जिद के प्रांगण में है खड़े भीम गदा है कर में, मन में वेग है उठा, क्रुद्ध हो सबलज हाथ लेकर गदा छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को क्यों जी, यह कैसा निष्किय प्रतिरोध है सूर्यमल्ल रूक गये, हृदय भी रूक गया भीषणता रूक कर करूणा-सी हो गई। कहा-‘नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से-- इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही हो जायेगी लुप्त।’ बड़ा आश्चर्य है आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने जिसे करती कभी सहस्त्रों वक्तृता अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही कहीं वीरता बनती इससे क्रूरता धर्म-जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नहीं किया, विशेष अनिष्ट शिल्प-साहित्य का लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो हे भारत के ध्वंस शिल्प ! स्मृति से भरे कितनी वर्षा शीताताप तुम सह चुके तुमको देख करूण इस वेश में कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये किस मिट्टी की ईंटें हैं बिखरी हुई।

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