रमणी-हृदय
सिन्धु कभी क्‍या बाड़वाग्नि को यों सह लेता कभी शीत लहरों से शीतल ही कर देता रमणी-हृदय अथाह जो न दिखालाई पड़ता तो क्या जल होकर ज्वाला से यों फिर लड़ता कौन जानता है, नीचे में, क्या बहता है बालू में भी स्नेह कहाँ कैसे रहता है फल्गू की है धार हृदय वामा का जैसे रूखा ऊपर, भीतर स्नेह-सरोवर जैसे ढकी बर्फ से शीतल ऊँची चोटी जिनकी भीतर है क्या बात न जानी जाती उनकी ज्वालामुखी-समान कभी जब खुल जाते हैं। भस्म किया उनको, जिनको वे पा जाते हैं स्वच्छ स्नेह अन्तर्निहित, फल्‍गू-सदृश किसी समय कभी सिन्धु ज्वालामुखी, धन्य-धन्य रमणी हृदय

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