प्रत्याशा
मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं। आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो- स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन। शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से बजने लगी उदास पहाड़ी रागिनी। कहते हो-"उत्कंठा तेरी कपट हैं।" नहीं नहीं उस धुँधले तारे को अभी- आधी खुली हुई खिड़की की राह से जीवन-धन! मैं देख रहा हूँ सत्य ही । दिखलाई पड़ता हैं जो तम-व्योम में, हिचको मत निस्संग न देख मुझे अभी। तुमको आते देख, स्वयं हट जायेगे- वे सब, आओ, मत-संकोच करो यहाँ। सुलभ हमारा मिलना हैं-कारण यही- ध्यान हमारा नहीं तुम्हें जो हो रहा। क्योंकि तुम्हारे हम तो करतलगत रहे हाँ, हाँ, औरों की भी हो सम्वर्धना। किन्तु न मेरी करो परीक्षा, प्राणधन! होड़ लगाओ नहीं, न दो उत्तेजना। चलने दो मयलानिल की शुचि चाल से। हृदय हमारा नही हिलाने योग्य हैं। चन्द्र-किरण-हिम-बिन्दु-मधुर-मकरन्द से बनी सुधा, रख दी हैं हीरक-पात्र में। मत छलकाओ इसे, प्रेम परिपूर्ण हैं ।

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