मकरन्द-विन्दु
तप्त हृदय को जिस उशीर-गृह का मलयानिल शीतल करता शीघ्र, दान कर शान्ति को अखिल जिसका हृदय पुजारी है रखता न लोभ को स्वयं प्रकाशानुभव-मुर्ति देती न क्षोभ जो प्रकृति सुप्रांगण में सदा, मधुक्रीड़ा-कूटस्थ को नमस्कार मेरा सदा, पूरे विश्व-गृहस्थ को हैं पलक परदे खिचें वरूणी मधुर आधार से अश्रुमुक्ता की लगी झालर खुले दृग-द्वार से चित्त-मन्दिर में अमल आलोक कैसा हो रंहा पुतलियाँ प्रहरी बनीं जो सौम्य हैं आकार से मुद मृदंग मनोज्ञ स्वर से बज रहा है ताल में कल्पना-वीणा बजी हर-एक अपने ताल से इन्द्रियाँ दासी-सदृश अपनी जगह पर स्तब्ध है मिल रहा गृहपति-सदृश यह प्राण प्राणधार से हृदय नहिं मेंरा शून्य रहे तुम नहीं आओ जो इसमें तो, तब प्रतिबिम्ब रहे मिलने का आनन्द मिले नहिं जो इस मन को मेरे करूण-व्यथा ही लेकर तेरी जिये प्रेम के डेरे मिले प्रिय, इन चरणों की धूल जिसमें लिपटा ही आया है सकल सुमंगल-मूल बड़े भाग्य से बहुत दिनो पर आये हो तुम प्यारे बैठो, घबराओ मन, बोलो, रहो नहीं मन मारे हृदय सुनाना तुम्हें चाहता, गाथाएँ जो बीतीं गदगद कंठ, न कह सकता हूँ, देखी बाजी जीती प्रथम, परम आदर्श विश्व का जो कि पुरातन अनुकरणों का मुख्य सत्य जो वस्तु सनातन उत्तमता का पूर्ण रूप आनन्द भरा धन शक्ति-सुधा से सिचा, शांति से सदा हरा वन परा प्रकृति से परे नहीं जो हिलामिला है सन्मानस के बीच कमल-सा नित्य खिला है चेतन की चित्कला विश्व में जिसकी सत्ता जिसकी ओतप्रोंत व्योम में पूर्ण महत्ता स्वानुभूति का साक्षी है जो जड़ क चेतन विश्व-शरीरी परमात्मा-प्रभुता का केतन अणु-अणु में जो स्वभाव-वश गति-विधि-निर्धारक नित्य-नवल-सम्बन्ध-सूत्र का अद्भूत कारक जो विज्ञानाकार है, ज्ञानों का आधार हैं नमस्कार सदनन्त को ऐसे बारम्बार है गज समान है ग्रस्त, त्रस्त द्रोपती सदृश है ध्रुव-सा धिक्कृत और सुदामा-सा वह कृश है बँधा हुआ प्रहलाद सदृश कुत्सिम कर्माें से अपमानित गौतमी न थी इतनी मर्मों से धर्म बिलखता सोचता हम क्या से क्या हो गये थक कर, कुछ अवतार ले तुम सुख-निधि में सो गये

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