जलद-आहृवान
शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना मानदण्ड-समान जो संसार को है मापता लहू की पंचाग्नि जो दिन-रात ही है तापता जीव जिनके आश्रमो की-सी गुहा में मोद से वास करते, खेलते है बालवृन्द विनोद से पत्रहीना वल्लरी-जैसे जटा बिखरी हुई उत्‍तरीय-समान जिन पर धूप है निखरी हुई शैल वे साधक सदा जीवन-सुधा को चाहते ध्यान में काली घटा के नित्य ही अवगाहते धूलिधूसर है धरा मलिना तुम्हारे ही लिये है फटी दूर्वादलों की श्‍याम साड़ी देखिये जल रही छाती, तुम्हारा प्रेम-वारि मिला नहीं इसलिये उसका मनोगत-भाव-फूल खिला नहीं नेत्र-निर्झर सुख-सलिल से भरें, दु,ख सारे भगें शीघ्र आ जाओ जलद ! आनन्द के अंकुर उगें

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