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उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को ये हज़रत देखने में सीधे-सादे भोले-भाले हैं...

इधर देख लेना उधर देख लेना कन-अँखियों से उस को मगर देख लेना फ़क़त नब्ज़ से हाल ज़ाहिर न होगा मिरा दिल भी ऐ चारागर देख लेना...

दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ है ये वो लफ़्ज़ कि शर्मिंदा-ए-मअ'नी न हुआ सब्ज़ा-ए-ख़त से तिरा काकुल-ए-सरकश न दबा ये ज़मुर्रद भी हरीफ़-ए-दम-ए-अफ़ई न हुआ...

आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया बाग़बाँ है चार दिन की बाग़-ए-आलम में बहार फूल सब मुरझा गए ख़ाली बयाबाँ रह गया...

एक दोशीज़ा सड़क पर धूप में है बे-क़रार चूड़ियाँ बजती हैं कंकर कूटने में बार बार चूड़ियों के साज़ में ये सोज़ है कैसा भरा आँख में आँसू बनी जाती है जिस की हर सदा...

तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए सुरमई शाल का डाले हुए माथे पे सिरा बाल खोले हुए संदल का लगाए टीका यूँ जो हँसती हुई तू सुब्ह को आ जाए ज़रा...

चीटियों की-सी काली-पाँति गीत मेरे चल-फिर निशि-भोर, फैलते जाते हैं बहु-भाँति बन्धु! छूने अग-जग के छोर।...

ना, ना, ना, रे फूल, वायु के झोंको पर मत डोल सलोने, सोने सी सूरज-किरनों से, पंखड़ियों से बोल सलोने, सावन की पुरवैया जैसे भ्रंग--कृषक तेरे तेरे पथ जोहें, तेरे उर की एक चटख पर हो न जाय भू-डोल सलोने!...

क्या अदा किया नाज़ है क्या आन है याँ परी का हुस्न भी हैरान है हूर भी देखे तो हो जावे फ़िदा आज इस आलम का वो इंसान है...

कोयी बोल वे मुखों बोल सज्जना सांवल्या साडे साह विच चेतर घोल सज्जना सांवल्या...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...