तर्पण का स्वर
ना, ना, ना, रे फूल, वायु के झोंको पर मत डोल सलोने, सोने सी सूरज-किरनों से, पंखड़ियों से बोल सलोने, सावन की पुरवैया जैसे भ्रंग--कृषक तेरे तेरे पथ जोहें, तेरे उर की एक चटख पर हो न जाय भू-डोल सलोने! शिर का और शिराओं को युग, रक्त-वहन-कारी रहने दो, मस्तक की रोली अहिवातिन, लाल-लाल प्यारी रहने दो, मत्था चढ़े कि मत्था उतरे, चक्र-सुदर्शन-छवि मुरलीधर, दुनिया से न्यारी रहने दो। वह नेपाल, प्रलय का प्रहरी, भारत का बल, भारत का शिर! वह कश्मीर कि जिस पर काले-पीले-उजले मेघ रहे घिर! आज अचानक अमरनाथ के शिर से उतर रही युग-गंगा, उठो देश, दे दो परिक्रमा, कहती है भैरवी कि फिर-फिर- माथे की बिन्दी-हिन्दी को-चलो गोरखाली में बोलें, वीरों को निर्वीर बनाया-उठो आज यह पातक धोलें, तेवर, तीर, तलवार, ताज से ऊपर तर्पण का स्वर गूँजे, भू-मण्डल भूदान-पथी उस जादूगर की थैली खोलें!

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