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अब आप हीं सोचिये कि कितनी सम्भावनाएँ हैं कि मैं आप पर हँसूं और आप मुझे पागल करार दे दें. याकि आप मुझ पर हँसें और आप हीं मुझे पागल करार दे दें. या कि आपको कोई बताए ...

जो हो इक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता हर इक कश्ती का अपना तजरबा होता है दरिया में सफ़र में रोज़ ही मंजधार हो ऐसा नहीं होता...

वो वक़्त आ गया है कि साहिल को छोड़ कर गहरे समुंदरों में उतर जाना चाहिए...

बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा क़हर होता जो बा-वफ़ा होता...

व्याप्त है क्या स्वच्छ सुषमा-सी उषा भूलोक में स्वर्णमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक में शुभ्र जलधर एक-दो कोई कहीं दिखला गये भाग जाने का अनिल-निर्देश वे भी पा गये ...

अरे कहीं देखा है तुमने मुझे प्यार करने वालों को? मेरी आँखों में आकर फिर आँसू बन ढरने वालों को?...

कुछ कहते हैं, विश्व एक दिन जल जाएगा, कुछ कहते हैं, विश्व एक दिन गल जाएगा। मुझे दीखता, दोनों ही सच हो सकते हैं। तृष्णा वह्नि है, जगती उसमें जल सकती है।...

चंदेलों की कला-प्रेम की देन-- देवताओं के मन्दिर बने हुए हैं अब भी अनिंद्य जो खड़े हुए हैं खजुराहो में, याद दिलाते हैं हम को उस गए समय की जब पुरुषों ने उमड़-उमड़ कर--...

बात अपनी किसे बताएँगे। हाल घर का किसे सुनाएँगे।1। जो सके सुन न आप दुख मेरा। क्यों कलेजा निकाल पाएँगे।2।...

बज़्म-ए-तरब वक़्त-ए-ऐश साक़ी ओ नक़्ल ओ शराब कोई इसे कुछ कहो हम तो समझते हैं ख़्वाब मजमा-ए-ख़ूबाँ वले ज़मज़मा-ए-चंग वले कोई इसे कुछ कहो हम तो समझते हैं ख़्वाब...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...