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मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे, सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा! ...

दिन की इस विस्तृत आभा में, खुली नाव पर, आर पार के दृश्य लग रहे साधारणतर। केवल नील फलक सा नभ, सैकत रजतोज्वल, और तरल विल्लौर वेश्मतल सा गंगा जल--...

गुजरात के फिराके सों है खा़र-खा़र दिल बेताब है सूनेमन आतिलबहार दिल मरहम नहीं है इसके जखम़का जहाँमने शम्शेरे-हिज्र सों जो हुआ है फिगा़र दिल...

मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का मुरव्वत हुस्न-ए-आलम-गीर है मर्दान-ए-ग़ाज़ी का शिकायत है मुझे या रब ख़ुदावंदान-ए-मकतब से सबक़ शाहीं बच्चों को दे रहे हैं ख़ाक-बाज़ी का...

मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़ अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना ज़िंदगी तल्ख़ सही ज़हर सही सम ही सही दर्द ओ आज़ार सही जब्र सही ग़म ही सही...

छेड़ माशूक़ से कीजे तो ज़रा थम थम कर रोज़ के नामा ओ पैग़ाम बुरे होते हैं...

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ रास्ते में कोई दीवार खड़ी हों जैसे...

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है...

कल्ल्ह जदों उहनूं मिल के मैं घर आ रेहा सी तां मेरी जेब विच चन्न दा ही इह खोटा रुपईआ रह ग्या सी...

मेरे पिंड दे किसे रुक्ख नूं मैं सुणिऐ जेल्ह हो गई है उहदे कई दोश हन : उहदे पत्त साव्यां दी थां...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...