मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती निगह नीची किए वो सामने मदफ़न के बैठे हैं...
अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है हम मरे जाते हैं तुम कहते हो हाल अच्छा है तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है...
पहले तो मुझे कहा निकालो फिर बोले ग़रीब है बुला लो बे-दिल रखने से फ़ाएदा क्या तुम जान से मुझ को मार डालो...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
शमशीर है सिनाँ है किसे दूँ किसे न दूँ इक जान-ए-ना-तवाँ है किसे दूँ किसे न दूँ मेहमान इधर हुमा है उधर है सग-ए-हबीब इक मुश्त उस्तुखाँ है किसे दूँ किसे न दूँ...
हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
अभी आए अभी जाते हो जल्दी क्या है दम ले लो न छोड़ूँगा मैं जैसी चाहे तुम मुझ से क़सम ले लो...
शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता...
क़रीब है यारों रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर लहू पुकारेगा आस्तीं का...
मुझ मस्त को मय की बू बहुत है दीवाने को एक हू बहुत है मोती की तरह जो हो ख़ुदा-दाद थोड़ी सी भी आबरू बहुत है...
वादा-ए-वस्ल और वो कुछ बात है हो न हो इस में भी कोई घात है ख़ल्क़ नाहक़ दरपय-ए-इसबात है है दहन उस का कहाँ इक बात है...
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा हया यक-लख़्त आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता...
साफ़ कहते हो मगर कुछ नहीं खुलता कहना बात कहना भी तुम्हारा है मुअम्मा कहना रो के उस शोख़ से क़ासिद मिरा रोना कहना हँस पड़े उस पे तो फिर हर्फ़-ए-तमन्ना कहना...
वस्ल की शब भी ख़फ़ा वो बुत-ए-मग़रूर रहा हौसला दिल का जो था दिल में ब-दस्तूर रहा उम्र-ए-रफ़्ता के तलफ़ होने का आया तो ख़याल लेकिन इक दम की तलाफ़ी का न मक़्दूर रहा...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
या-रब शब-ए-विसाल ये कैसा गजर बजा अगले पहर के साथ ही पिछ्ला पहर बजा आवाज़-ए-सूर सुन के कहा दिल ने क़ब्र में किस की बरात आई ये बाजा किधर बजा...
कहा जो मैं ने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था तो हँस के बोले वो मुँह क़ाबिल-ए-नक़ाब न था शब-ए-विसाल भी वो शोख़ बे-हिजाब न था नक़ाब उलट के भी देखा तो बे-नक़ाब न था...
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया बे-कार है जो दाँत दहन से निकल गया ठहरें कभी कजों में न दम भर भी रास्त-रौ आया कमाँ में तीर तो सन से निकल गया...
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं तुम्हारे देखने वालों में यार हम भी हैं तड़प के रूह ये कहती है हिज्र-ए-जानाँ में कि तेरे साथ दिल-ए-बे-क़रार हम भी हैं...