पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया बे-कार है जो दाँत दहन से निकल गया ठहरें कभी कजों में न दम भर भी रास्त-रौ आया कमाँ में तीर तो सन से निकल गया ख़िलअत पहन के आने की थी घर में आरज़ू ये हौसला भी गोर-ओ-कफ़न से निकल गया पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया मुर्ग़ान-ए-बाग़ तुम को मुबारक हो सैर-ए-गुल काँटा था एक मैं सो चमन से निकल गया क्या रंग तेरी ज़ुल्फ़ की बू ने उड़ा दिया काफ़ूर हो के मुश्क ख़ुतन से निकल गया प्यासा हूँ इस क़दर कि मिरा दिल जो गिर पड़ा पानी उबल के चाह-ए-ज़क़न से निकल गया सारा जहान नाम के पीछे तबाह है इंसान किया अक़ीक़-ए-यमन से निकल गया काँटों ने भी न दामन-ए-गुलचीं पकड़ लिया बुलबुल को ज़ब्ह कर के चमन से निकल गया क्या शौक़ था जो याद सग-ए-यार ने किया हर उस्तुख़्वाँ तड़प के बदन से निकल गया ऐ सब्ज़ा रंग-ए-ख़त भी बना अब तो बोसा दे बेगाना था जो सब्ज़ा चमन से निकल गया मंज़ूर इश्क़ को जो हुआ औज-ए-हुस्न पर कुमरी का नाला सर्व-ए-चमन से निकल गया मद्द-ए-नज़र रही हमें ऐसी रज़ा-ए-दोस्त काटी ज़बाँ जो शिकवा दहन से निकल गया ताऊस ने दिखाए जो अपने बदन के दाग़ रोता हुआ सहाब चमन से निकल गया सहरा में जब हुई मुझे ख़ुश-चश्मों की तलाश कोसों मैं आहुवान-ए-ख़ुतन से निकल गया ख़ंजर खिंचा जो म्यान से चमका मियान-ए-सफ़ जौहर खुले जो मर्द वतन से निकल गया में शेर पढ़ के बज़्म से किया उठ गया 'अमीर' बुलबुल चहक के सेहन-ए-चमन से निकल गया

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