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कुछ हम को इम्तियाज़ नहीं साफ़ ओ दुर्द का ऐ साक़ियान-ए-बज़्म बयारीद हरचे हस्त...

सब ठाठ ये इक बूँद से क़ुदरत की बना है याँ और किसी की न मनी है न मना है बिल-फ़र्ज़ अगर हम हुए हव्वा के शिकम से आदम के तईं देखिए वो किस का जना है...

ये हुस्न है आह या क़यामत कि इक भभूका भभक रहा है फ़लक पे सूरज भी थरथरा कर मुँह उस का हैरत से तक रहा है खजूरी चोटी अदा में मोटी जफ़ा में लम्बी वफ़ा में छोटी है ऐसी खोटी कि दिल हर इक का हर एक लट में लटक रहा है...

न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में जो कुछ मज़ा है तिरे साथ मिल के सोने में पलंग पे सेज बिछाता हूँ मुद्दतों से जान कभी तू आन के सो जा मिरे बिछौने में...

रहे जो शब को हम उस गुल के सात कोठे पर तो क्या बहार से गुज़री है रात कोठे पर ये धूम-धाम रही सुब्ह तक अहा-हा-हा किसी के उतरे है जैसे बरात कोठे पर...

दिल ख़ुशामद से हर इक शख़्स का क्या राज़ी है आदमी जिन परी ओ भूत बला राज़ी है भाई फ़रज़ंद भी ख़ुश बाप चचा राज़ी है शाद मसरूर ग़नी शाह ओ गदा राज़ी है...

चाहत के अब इफ़शा-कुन-ए-असरार तो हम हैं क्यूँ दिल से झगड़ते हो गुनहगार तो हम हैं रू आईने को देते हो बर-अक्स हमारे आईना रखो तालिब-ए-दीदार तो हम हैं...

हूँ तेरे तसव्वुर में मिरी जाँ हमा-तन-चश्म दिल है मिरा जूँ आईना हैराँ हमा-तन-चश्म ता एक नज़र देखे तुझे ऐ मह-ए-ताबाँ रहता है सदा महर-ए-दरख़्शाँ हमा-तन-चश्म...

न इतना ज़ुल्म कर ऐ चाँदनी बहर-ए-ख़ुदा छुप जा तुझे देखे से याद आता है मुझ को माहताब अपना...

निगह के सामने उस का जूँही जमाल हुआ वो दिल ही जाने है उस दम जो दिल का हाल हुआ अगर कहूँ मैं कि चमका वो बर्क़ की मानिंद तो कब मसल है ये उस की जो बे-मिसाल हुआ...

हुआ ख़ुर्शीद के देखे से दूना इज़्तिराब अपना कि ये निकला सहर को और न निकला आफ़्ताब अपना तिरे मुँह के जो हर दम रू-ब-रू आने को कहता है ज़रा आईना ले कर मुँह तो देखे आफ़्ताब अपना...

चितवन में शरारत है और सीन भी चंचल है काफ़िर तिरी नज़रों में कुछ और ही छल-बल है बाला भी चमकता है जुगनू भी दमकता है बध्धी की लिपट तिस पर तावीज़ की हैकल है...

कौन याँ साथ लिए ताज-ओ-सरीर आया है याँ तो जो आया है पहले सो फ़क़ीर आया है इश्क़ लाया है फ़क़त एक ही सीने की सिपर हुस्न बाँधे हुए सौ तरकश-ओ-तीर आया है...

क्या दिन थे वो जो वाँ करम-ए-दिल-बराना था अपना भी उस तरफ़ गुज़र आशिक़ाना था मिल बैठने के वास्ते आपस में हर घड़ी था कुछ फ़रेब वाँ तो इधर कुछ बहाना था...

कमाल-ए-इश्क़ भी ख़ाली नहीं तमन्ना से जो है इक आह तो उस को भी है असर की तलब...

ख़ुदा के वास्ते गुल को न मेरे हाथ से लो मुझे बू आती है इस में किसी बदन की सी...

तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त...

देख कर कुर्ती गले में सब्ज़ धानी आप की धान के भी खेत ने अब आन मानी आप की क्या तअज्जुब है अगर देखे तो मुर्दा जी उठे चैन नेफ़े की ढलक पेड़ू पे आनी आप की...

जो दिल को दीजे तो दिल में ख़ुश हो करे है किस किस तरह से हलचल अगर न दीजे तो वूहीं क्या क्या जतावे ख़फ़्गी इताब अकड़-बल जो इस बहाने से हाथ पकड़ें कि देख दिल की धड़क हमारे तो हाथ झप से छुड़ा ले कह कर मुझे नहीं है कुछ इस की अटकल...

दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम बस तरसते ही चले अफ़्सोस पैमाने को हम...

पुकारा क़ासिद-ए-अश्क आज फ़ौज-ए-ग़म के हाथों से हुआ ताराज पहले शहर-ए-जाँ दिल का नगर पीछे...

यूँ लब से अपने निकले है अब बार-बार आह करता है जिस तरह कि दिल-ए-बे-क़रार आह हम ईद के भी दिन रहे उम्मीद-वार आह हो जी में अपने ईद की फ़रहत से शाद-काम...

गर हम ने दिल सनम को दिया फिर किसी को क्या इस्लाम छोड़ कुफ़्र लिया फिर किसी को क्या क्या जाने किस के ग़म में हैं आँखें हमारी लाल ऐ हम ने गो नशा भी पिया फिर किसी को क्या...

वो सनम जो मेहर-एज़ार है उसे हम से मिलने में आर है वले अपना जो दिल-ए-ज़ार है वो हज़ार जान से निसार है मिले जब से कूचे में उस के जा ये सुरूर-ए-ऐश है बरमला लब-ए-दिल है और वो नक़्श-ए-पा बर-ए-जाँ है और दर-ए-यार है...

जो पूछा मैं ने याँ आना मिरा मंज़ूर रखिएगा तो सुन कर यूँ कहा ये बात दिल से दूर रखिएगा बहुत रोईं ये आँखें और पड़ी दिन रात रोती हैं अब इन को चश्म भी कीजेगा या नासूर रखिएगा...

मज़मून-ए-सर्द-मेहरी-ए-जानाँ रक़म करूँ गर हाथ आए काग़ज़-ए-कश्मीर का वरक़...

मुँह ज़र्द ओ आह-ए-सर्द ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर सच्ची जो दिल-लगी है तो क्या क्या गवाह है...

रखता है गो क़दीम से बुनियाद आगरा अकबर के नाम से हुआ आबाद आगरा याँ के खंडर न और जगह की इमारतें यारो अजब मक़ाम है दिल-शाद आगरा...

जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर' ये ग़ज़ल ये रेख़्ता ये शेर-ख़्वानी फिर कहाँ...

रुख़ परी चश्म परी ज़ुल्फ़ परी आन परी क्यूँ न अब नाम-ए-ख़ुदा हो तिरे क़ुर्बान परी झमके झमके वो सुरय्या के किरन फूल वो फूल बुंदे बाले परी मोती परी और कान परी...

दिल हर घड़ी कहता है यूँ जिस तौर से अब हो सके उठ और सँभल घर से निकल और पास उस चंचल के चल देखी जो उस महबूब की हम ने झलक है कल की कल पाई हर इक तावीज़ में अपने दिल-ए-बेकल की कल...

थी छोटी उस के मुखड़े पर कल ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल और तरह फिर देखा आज तो उस गुल के थे काकुल के बल और तरह वो देख झिड़कता है हम को कर ग़ुस्सा हर दम और हमें है चैन उसी के मिलने से ज़िन्हार नहीं कल और तरह...

क़त्ल पर बाँध चुका वो बुत-ए-गुमराह मियाँ देखें अब किस की तरफ़ होते हैं अल्लाह मियाँ नज़'अ में चश्म को दीदार से महरूम न रख वर्ना ता-हश्र ये देखेंगी तिरी राह मियाँ...

शोर आहों का उठा नाला फ़लक सा निकला आज इस धूम से ज़ालिम तेरा शैदा निकला यूँ तो हम थे यूँही कुछ मिस्ल-ए-अनार-ओ-महताब जब हमें आग दिखाई तो तमाशा निकला...

यूँ तो हम थे यूँही कुछ मिस्ल-ए-अनार-ओ-महताब जब हमें आग दिखाए तो तमाशा निकला...

किधर है आज इलाही वो शोख़ छल-बलिया कि जिस के ग़म से मिरा दिल हुआ है बावलिया तमाम गोरों के हैरत से रंग उड़ जाते जो घर से आज निकलता वो मेरा साँवलिया...

साक़ी ज़ुहूर-ए-सुब्ह ओ तरश्शह है नूर का दे मय यही तो वक़्त है नूर ओ ज़ुहूर का कूचे में उस के जिस को जगह मिल गई वो फिर माइल हुआ न सेहन-ए-चमन के सुरूर का...

वामाँदगान-ए-राह तो मंज़िल पे जा पड़े अब तू भी ऐ 'नज़ीर' यहाँ से क़दम तराश...

देख ले जो आलम उस के हुस्न-ए-बाला-दस्त का हौसला इतना कहाँ अपनी निगाह-ए-पस्त का नीस्त रहते हम तो ये सैरें कहाँ से देखते ये फ़क़त एहसान है उस ज़ात-ए-पाक-ए-मस्त का...

मिल कर सनम से अपने हंगाम-ए-दिल-कुशाई हँस कर कहा ये हम ने ऐ जाँ बसंत आई सुनते ही उस परी ने गुल गुल शगुफ़्ता हो कर पोशाक-ए-ज़र-फ़िशानी अपनी वहीं रंगाई...