तिरी क़ुदरत की क़ुदरत कौन पा सकता है क्या क़ुदरत तिरे आगे कोई क़ादिर कहा सकता है क्या क़ुदरत तू वो यकता-ए-मुतलक़ है कि यकताई में अब तेरी कोई शिर्क-ए-दुई का हर्फ़ ला सकता है क्या क़ुदरत...
शब-ए-मह में देख उस का वो झमक झमक के चलना किया इंतिख़ाब मह ने ये चमक चमक के चलना रविश-ए-सितम में आना तो क़दम उठाना जल्दी जो रह-ए-कम में आना तो ठिठक ठिठक के चलना...
वो चाँदनी में जो टुक सैर को निकलते हैं तो मह के तश्त में घी के चराग़ चलते हैं पड़े हवस ही हवस में हमेशा गलते हैं हमारे देखिए अरमान कब निकलते हैं...
दुनिया में कोई शाद कोई दर्द-नाक है या ख़ुश है या अलम के सबब सीना-चाक है हर एक दम से जान का हर-दम तपाक है नापाक तन पलीद नजिस या कि पाक है...
जब उस का इधर हम गुज़र देखते हैं तो कर दिल में क्या क्या हज़र देखते हैं उधर तीर चलते हैं नाज़-ओ-अदा के इधर अपना सीना सिपर देखते हैं...
दिल को चश्म-ए-यार ने जब जाम-ए-मय अपना दिया उन से ख़ुश हो कर लिया और कह के बिस्मिल्लाह पिया देख उस की जामा-ज़ेबी गुल ने अपना पैरहन इस क़दर फाड़ा कि बुलबुल से नहीं जाता पिया...
जब आदमी के हाल पे आती है मुफ़्लिसी किस किस तरह से इस को सताती है मुफ़्लिसी प्यासा तमाम रोज़ बिड़ाती है मुफ़्लिसी भूका तमाम रात सुलाती है मुफ़्लिसी...
धुआँ कलेजे से मेरे निकला जला जो दिल बस कि रश्क खा कर वो रश्क ये था कि ग़ैर से टुक हँसा था चंचल मिसी लगा कर फ़क़त जो चितवन पे ग़ौर कीजे तो वो भी वो सेहर है कि जिस का करिश्मा बंदा ग़ुलाम ग़म्ज़ा दग़ाएँ नौकर फ़रेब चाकर...
की तलब इक शह ने कुछ पंद अज़-हकीम-ए-नुक्ता-दाँ उस ने सुन के यूँ कहा ऐ साहिब-ए-इक़बाल-ओ-शाँ याद रख और पास रख और सख़्त रख और जम्अ कर खा छुपा, काट और उठा, दे ले, बख़ूबी हर ज़माँ...
ये जो गुल-रू निगार हँसते हैं फ़ित्ना-गर हैं हज़ार हँसते हैं अर्ज़ बोसे की सच न जानो तुम हम तो ऐ गुल-एज़ार हँसते हैं...
तुझे कुछ भी ख़ुदा का तर्स है ऐ संग-दिल तरसा हमारा दिल बहुत तरसा अरे तरसा न अब तरसा मैं उस पर मुब्तला वो ग़ैर मज़हब शोख़ अब तरसा क़यामत है मुसलमाँ आशिक़ और माशूक़ है तरसा...
जब मैं सुना कि यार का दिल मुझ से हट गया सुनते ही इस के मेरा कलेजा उलट गया फ़रहाद था तो शीरीं के ग़म में मुआ ग़रीब लैला के ग़म में आन के मजनूँ भी लट गया...
गर ऐश से इशरत में कटी रात तो फिर क्या और ग़म में बसर हो गई औक़ात तो फिर क्या जब आई अजल फिर कोई ढूँडा भी न पाया क़िस्सों में रहे हर्फ़-ओ-हिकायात तो फिर क्या...
हो क्यूँ न तिरे काम में हैरान तमाशा या-रब तिरी क़ुदरत में है हर आन तमाशा ले अर्श से ता-फ़र्श नए रंग नए ढंग हर शक्ल अजाइब है हर इक शान तमाशा...
ऐ चश्म जो ये अश्क तू भर लाई है कम-बख़्त इस में तो सरासर मिरी रुस्वाई है कम-बख़्त...
रुत्बा कुछ आशिक़ी में न कम है फ़क़ीर का हैं जिस के सब सनम वो सनम है फ़क़ीर का तकिया इसे न भूल के कहना कभी मियाँ तकिया नहीं ये बाग़-ए-इरम है फ़क़ीर का...
जब हम-नशीं हमारा भी अहद-ए-शबाब था क्या क्या नशात-ओ-ऐश से दिल कामयाब था हैरत है उस की ज़ूद-रवी क्या कहें हम आह नक़्श-ए-तिलिस्म था वो कोई या हुबाब था...
शेवा-ए-नाज़ होश छल जाना तर्ज़-ए-रफ़्तार दिल कुचल जाना सफ़-ए-मिज़्गाँ के झोक से गिर कर हम से कब हो सका सँभल जाना...
कल नज़र आया चमन में इक अजब रश्क-ए-चमन गल-रुख़ ओ गुल-गूं क़बा ओ गुल-अज़ार ओ गुल-बदन महर-ए-तलअत ज़ोहरा-पैकर मुश्तरी-रू मह-जबीं सीम-बर सीमाब-तब ओ सीम-साक़ ओ सीम-तन...
तू है वो गुल ऐ जाँ कि तिरे बाग़ में है शौक़ जिब्रील को बुलबुल की तरह नारा-ज़नी का...
लो न हँस हँस के तुम अग़्यार से गुल-दस्तों से इतनी ज़िद भी न रखो अपने जिगर-ख़स्तों से फ़ुंदक़ें बज़्म में देख उस के सर-अंगुश्तों से रिश्ता-ए-रब्त ने ली राह कफ़-ए-दस्तों से...
तो ही न सुने जब दिल-ए-नाशाद की फ़रियाद फिर किस से करें हम तिरी बे-दाद की फ़रियाद तेशे की वो खट-खट का न था ग़लग़ला यारो की ग़ौर तो वो थी दिल-ए-फ़रहाद की फ़रियाद...
कहीं बैठने दे दिल अब मुझे जो हवास टुक मैं बजा करूँ नहीं ताब मुझ में कि जब तलक तू फिरे तो मैं भी फिरा करूँ...
ये छपके का जो बाला कान में अब तुम ने डाला है इसी बाले की दौलत से तुम्हारा बोल-बाला है नज़ाकत सर से पाँव तक पड़ी क़ुर्बान होती है इलाही उस बदन को तू ने किस साँचे में ढाला है...
यार के आगे पढ़ा ये रेख़्ता जा कर 'नज़ीर' सुन के बोला वाह-वाह अच्छा कहा अच्छा कहा...
फिर इस तरफ़ वो परी-रू झमकता आता है ब-रंग-ए-मेहर अजब कुछ चमकता आता है इधर उधर जो नज़र है तो इस लिए यारो जो ढब से ताकते हैं उन को तकता आता है...
दिल यार की गली में कर आराम रह गया पाया जहाँ फ़क़ीर ने बिसराम रह गया किस किस ने उस के इश्क़ में मारा न दम वले सब चल बसे मगर वो दिल-आराम रह गया...
अदा-ओ-नाज़ में कुछ कुछ जो होश उस ने सँभाला है तो अपने हुस्न का क्या क्या दिलों में शोर डाला है अभी क्या उम्र है क्या अक़्ल है क्या फ़हम है लेकिन अभी से दिल-फ़रेबी का लहर इक नक़्शा निराला है...
अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है ब'अद-अज़ाँ सर हल्क़ा-ए-पैग़मबराँ को इश्क़ है ला-फ़ता-इल्ला-अली है शान में जिस की नुज़ूल दोस्ताँ उस शाह-ए-मर्दां से जवाँ को इश्क़ है...
उसी का देखना है ढानता दिल जो है तीर-ए-निगह से छानता दिल बहुत कहते हैं मत मिल उस से लेकिन नहीं कहना हमारा मानता दिल...
उस के बाला है अब वो कान के बीच जिस की खेती है झूक जान के बीच दिल को इस की हवा ने आन के बीच कर दिया बावला इक आन के बीच...
हुए ख़ुश हम एक निगार से हुए शाद उस की बहार से कभी शान से कभी आन से कभी नाज़ से कभी प्यार से हुई पैरहन से भी ख़ुश-दिली कली दिल की और बहुत खिली कभी तुर्रे से कभी गजरे से कभी बध्धी से कभी हार से...
लावे ख़ातिर में हमारे दिल को वो मग़रूर क्या जिस के आगे महर क्या मह क्या परी क्या हूर क्या दिल नया हम ने लगाया है बता दो मेहरबाँ उस की है रह क्या रविश क्या रस्म क्या दस्तूर क्या...
है दुनिया जिस का नाँव मियाँ ये और तरह की बस्ती है जो मंहगों को ये महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है याँ हर-दम झगड़े उठते हैं हर-आन अदालत बस्ती है गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है...
हर इक मकाँ में गुज़रगाह-ए-ख़्वाब है लेकिन अगर नहीं तो नहीं इश्क़ के जनाब में ख़्वाब...