साक़ी ज़ुहूर-ए-सुब्ह ओ तरश्शह है नूर का
साक़ी ज़ुहूर-ए-सुब्ह ओ तरश्शह है नूर का दे मय यही तो वक़्त है नूर ओ ज़ुहूर का कूचे में उस के जिस को जगह मिल गई वो फिर माइल हुआ न सेहन-ए-चमन के सुरूर का ये गुल जो हम ने हाथ पे खाए हैं रू-ब-रू हम को यही मिला है तबर्रुक हुज़ूर का सीमाब जिस को कहते हैं सीमाब ये नहीं दिल आब हो गया है कसी ना-सुबूर का मय पी के आशिक़ी के ख़राबात में 'नज़ीर' ने डर है मोहतसिब का न सदरुस्सुदूर का

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