मिल कर सनम से अपने हंगाम-ए-दिल-कुशाई
हँस कर कहा ये हम ने ऐ जाँ बसंत आई
सुनते ही उस परी ने गुल गुल शगुफ़्ता हो कर
पोशाक-ए-ज़र-फ़िशानी अपनी वहीं रंगाई
जब रंग के आई उस के पोशाक-ए-पुर-नज़ाकत
सरसों की शाख़ पर कल फिर जल्द इक मँगाई
इक पंखुड़ी उठा कर नाज़ुक से उँगलियों में
रंगत को उस की अपनी पोशाक से मिलाई
जिस दम क्या मुक़ाबिल किसवत से अपनी उस को
देखा तो इस की रंगत उस पर हुई सिवाई
फिर तो ब-सद-मसर्रत और सौ नज़ाकतों से
नाज़ुक बदन पे अपने पोशाक वो खपाई