किस दर्जा फ़ुसूँ-कार वो अल्लाह ग़नी है क्या मौजा-ए-ताबिंदगी ओ सीम-तनी है अंदाज़ है या जज़्बा-ए-गरदूँ-ज़दनी है आवाज़ है या बरबत-ए-ईमाँ-शिकनी है...
क्या रूह-फ़ज़ा जल्वा-ए-रुख़्सार-ए-सहर है कश्मीर दिल-ए-ज़ार है फ़िरदौस-ए-नज़र है हर फूल का चेहरा अरक़-ए-हुस्न से तर है हर चीज़ में इक बात है हर शय में असर है...
मज़हबी इख़लाक़ के जज़्बे को ठुकराता है जो आदमी को आदमी का गोश्त खिलवाता है जो फर्ज़ भी कर लूँ कि हिन्दू हिन्द की रुसवाई है लेकिन इसको क्या करूँ फिर भी वो मेरा भाई है...
अशवों को चैन नहीं आफ़त किये बगैर तुम, और मान जाओ शरारत किये बगैर! अहल-ए-नज़र को यार दिखाना राह-ए-वफ़ा ऐ काश! ज़िक्र-ए-दोज़ख-ओ-जन्नत किये बगैर...
जब से मरने की जी में ठानी है किस क़दर हम को शादमानी है शाइरी क्यूँ न रास आए मुझे ये मिरा फ़न्न-ए-ख़ानदानी है...
क्या ग़ज़ब है हुस्न के बीमार होने की सदा जैसे कच्ची नींद से बेदार होने की अदा इंकिसार-ए-हुस्न पलकों के झपकने में निहाँ नीम-वा बीमार आँखों से मुरव्वत सी अयाँ...
छा गई बरसात की पहली घटा अब क्या करूँ ख़ौफ़ था जिस का वो आ पहुँची बला अब क्या करूँ हिज्र को बहला चली थी गर्म मौसम की सुमूम ना-गहाँ चलने लगी ठंडी हवा अब क्या करूँ...
ख़ामोशी का समाँ है और मैं हूँ दयार-ए-ख़ुफ़्तगाँ है और मैं हूँ कभी ख़ुद को भी इंसाँ काश समझे ये सई-ए-रायगाँ है और मैं हूँ ...
अलस्सबाह कि थी काएनात सर-ब-सुजूद फ़लक पे शोर-ए-अज़ाँ था ज़मीं पे बाँग-ए-दुरूद बहार शबनम-आसूदा थी कि रूह-ए-ख़लील फ़रोग़-ए-लाला-ओ-गुल था कि आतिश-ए-नमरूद...
शश-जिहत आप को आएँगे नज़र दो-बटा-तीन छे-बटा-नौ के बराबर है अगर दो-बटा-तीन दो खिलौने जो कभी हम ने तिपाई पे धरे आ गए साफ़ मुहंदिस को नज़र दो-बटा-तीन...
फिर आश्ना-ए-लज्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर हैं हम फिर महरम-ए-कशाकश-ए-हर-ख़ैर-ओ-शर हैं हम हर साँस दे रही है ख़बर काएनात की फिर बादा-ए-जमाल से यूँ बे-ख़बर हैं हम...
फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम पर्दे फिर आसमाँ के उठाए हुए हैं हम छाई हुई है इश्क़ की फिर दिल पे बे-ख़ुदी फिर ज़िंदगी को होश में लाए हुए हैं हम...
क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाएक़-आश्ना फिर भी हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है...
ऐ दिल-ए-अफ़सुर्दा वो असरार-ए-बातिन क्या हुए सोज़ की रातें कहाँ हैं साज़ के दिन क्या हुए आँसुओं की वो झड़ी वो ग़म का सामाँ क्या हुआ तेरा सावन का महीना चश्म-ए-गिर्यां क्या हुआ...
नुमायाँ मुन्तहा-ए-सई-ए-पैहम होती जाती है तबीअत बे-नियाज़-ए-हर-दो-आलम होती जाती है उठी जाती है दिल से हैबत-ए-आलाम-ए-रूहानी जराहत बहर-ए-क़ल्ब-ए-ज़ार मरहम होती जाती है...
आ फ़स्ल-ए-गुल है ग़र्क़-ए-तमन्ना तिरे लिए डूबा हुआ है रंग में सहरा तिरे लिए साहिल पे सर्व-ए-नाज़ को दे ज़हमत-ए-ख़िराम बल खा रहा है ख़ाक पे दरिया तिरे लिए...
इस का रोना नहीं क्यूँ तुम ने किया दिल बर्बाद इस का ग़म है कि बहुत देर में बर्बाद किया...
नक़्श-ए-ख़याल दिल से मिटाया नहीं हनूज़ बे-दर्द मैं ने तुझ को भुलाया नहीं हनूज़ वो सर जो तेरी राहगुज़र में था सज्दा-रेज़ मैं ने किसी क़दम पे झुकाया नहीं हनूज़...
फिर दिल में दर्द सिलसिला-ए-जुम्बा है क्या करूँ फिर अश्क गर्म-ए-दावत-ए-मिज़्गाँ है क्या करूँ फिर चाक चाक सीना है आवाज़ दूँ किसे फिर तार तार जैब-ओ-गरेबाँ है क्या करूँ...
इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो 'जोश' ज़िंदगी पर साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ क्यूँ न हो...
मुझ से साक़ी ने कही रात को क्या बात ऐ 'जोश' यानी अज़दाद हैं परवरदा-ए-यक-ज़ात ऐ 'जोश' मस्त ओ बेगाना गुज़र जा कुरा-ए-ख़ाकी से ये तो है रहगुज़र-ए-सैल-ए-ख़यालात ऐ 'जोश'...
न छेड़ शाइर रबाब-ए-रंगीं ये बज़्म अभी नुक्ता-दाँ नहीं है तिरी नवा-संजियों के शायाँ फ़ज़ा-ए-हिन्दोस्ताँ नहीं है तिरी समाअत निगार-ए-फ़ितरत के लहन की राज़-दाँ नहीं है वगरना ज़र्रा है कौन ऐसा कि जिस के मुँह में ज़बाँ नहीं है...
मेरी हालत देखिए और उन की सूरत देखिए फिर निगाह-ए-ग़ौर से क़ानून-ए-क़ुदरत देखिए सैर-ए-महताब-ओ-कवाकिब से तबस्सुम ता-बके रो रही है वो किसी की शम-ए-तुर्बत देखिए...
जी में आता है कि फिर मिज़्गाँ को बरहम कीजिए कासा-ए-दिल ले के फिर दरयूज़ा-ए-ग़म कीजिए गूँजता था जिस से कोह-ए-बे-सुतून ओ दश्त-ए-नज्द गोश-ए-जाँ को फिर उन्हीं नालों का महरम कीजिए...
काफ़िर बनूँगा कुफ़्र का सामाँ तो कीजिए पहले घनेरी ज़ुल्फ़ परेशाँ तो कीजिए उस नाज़-ए-होश को कि है मूसा पे ताना-ज़न इक दिन नक़ाब उलट के पशीमाँ तो कीजिए...
लिल्लाहिल-हम्द कि दिल शोला-फ़िशाँ है अब तक पीर है जिस्म मगर तब्अ जवाँ है अब तक बर्फ़-बारी है मह ओ साल की सर पर लेकिन ख़ून में गर्मी-ए-पहलु-ए-बुताँ है अब तक...
सुबू उठा कि फ़ज़ा सीम-ए-ख़ाम है साक़ी फ़राज़-ए-कोह पे माह-ए-तमाम है साक़ी चुने हुए हैं प्याले झुकी हुई बोतल नया क़ूऊद निराला क़याम है साक़ी...
तबस्सुम है वो होंटों पर जो दिल का काम कर जाए उन्हें इस की नहीं परवा कोई मरता है मर जाए दुआ है मेरी ऐ दिल तुझ से दुनिया कूच कर जाए और ऐसी कुछ बने तुझ पर कि अरमानों से डर जाए...
सुब्ह बालीं पे ये कहता हुआ ग़म-ख़्वार आया उठ कि फ़रियाद-रस-ए-आशिक़-ए-बीमार आया बख़्त-ए-ख़्वाबीदा गया ज़ुल्मत-ए-शब के हमराह सुब्ह का नूर लिए दौलत-ए-बेदार आया...
तजरबे के दश्त से दिल को गुज़रने के लिए रोज़ इक सूरत नई है ग़ौर करने के लिए जब कोई बनता है लाखों हस्तियों को मेट कर सुब्ह तारों को दबाती है उभरने के लिए...
सरशार हूँ सरशार है दुनिया मिरे आगे कौनैन है इक लर्ज़िश-ए-सहबा मिरे आगे हर नज्म है इक आरिज़-ए-रौशन मिरे नज़दीक हर ज़र्रा है इक दीदा-ए-बीना मिरे आगे...
ग़ुंचा-ए-दिल मर्द का रोज़-ए-अज़ल जब खुल चुका जिस क़दर तक़दीर में लिक्खा हुआ था मिल चुका दफ़अतन गूँजी सदा फिर आलम-ए-अनवार में औरतें दुनिया की हाज़िर हों मिरे दरबार में...
तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए सुरमई शाल का डाले हुए माथे पे सिरा बाल खोले हुए संदल का लगाए टीका यूँ जो हँसती हुई तू सुब्ह को आ जाए ज़रा...