शश-जिहत आप को आएँगे नज़र दो-बटा-तीन
छे-बटा-नौ के बराबर है अगर दो-बटा-तीन
दो खिलौने जो कभी हम ने तिपाई पे धरे
आ गए साफ़ मुहंदिस को नज़र दो-बटा-तीन
तालिब-ए-ख़ैर न होंगे कभी इंसान से हम
नाम उस का है बशर उस में है शर दो-बटा-तीन
मुनहसिर क़ुव्वत-ए-बाज़ू पे है दौलत-मंदी
देख लो ज़ोर में मौजूद है ज़र दो-बटा-तीन
मलक-उल-मौत से दुनिया में हिरासाँ नहीं कौन
जिस को कहते हैं निडर उस में है डर दो-बटा-तीन
बीसवीं रात महीने की जब आ जाती है
ग़म में रह जाता है घुल घुल के क़मर दो-बटा-तीन
ज़ालिमो ख़ौफ़ करो आह को समझो न हक़ीर
लफ़्ज़-ए-अल्लाह में है इस का असर दो-बटा-तीन
खोटी मंज़िल किए देती है तिरी याद नदीम
राह-रौ का अभी बाक़ी है सफ़र दो-बटा-तीन
दो-बटा-तीन की रक्खी है जो ऐ 'जोश' रदीफ़
शेर भी निकले हैं मक़्बूल-ए-नज़र दो-बटा-तीन