जब से मरने की जी में ठानी है
जब से मरने की जी में ठानी है किस क़दर हम को शादमानी है शाइरी क्यूँ न रास आए मुझे ये मिरा फ़न्न-ए-ख़ानदानी है क्यूँ लब-ए-इल्तिजा को दूँ जुम्बिश तुम न मानोगे और न मानी है आप हम को सिखाएँ रस्म-ए-वफ़ा मेहरबानी है मेहरबानी है दिल मिला है जिन्हें हमारा सा तल्ख़ उन सब की ज़िंदगानी है कोई सदमा ज़रूर पहुँचेगा आज कुछ दिल को शादमानी है

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