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नीली, पीली औ’ चटकीली पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल, प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली तुम किस सुख में हो रही डोल?...

जग-जीवन में जो चिर महान, सौंदर्य-पूर्ण औ सत्‍य-प्राण, मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ! जिसमें मानव-हित हो समान!...

दिन की इस विस्तृत आभा में, खुली नाव पर, आर पार के दृश्य लग रहे साधारणतर। केवल नील फलक सा नभ, सैकत रजतोज्वल, और तरल विल्लौर वेश्मतल सा गंगा जल--...

नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद-हासिनि, मृदु-करतल पर शशि-मुख धर, नीरव, अनिमिष, एकाकिनि! ...

शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल! अपलक अनंत, नीरव भू-तल! सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल, लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल! ...

राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज जगत के सन्मुख, अर्थ साम्य भी मिटा न सकता मानव जीवन के दुख। व्यर्थ सकल इतिहासों, विज्ञानों का सागर मंथन, वहाँ नहीं युग लक्ष्मी, जीवन सुधा, इंदु जन मोहन!...

प्रेम की बंसी लगी न प्राण! तू इस जीवन के पट भीतर कौन छिपी मोहित निज छवि पर? चंचल री नव यौवन के पर, ...

छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन? भूल अभी से इस जग को!...

खोलो वासना के वसन, नारी नर! वाणी के बहु रूप, बहु वेश, बहु विभूषण, खोलो सब, बोलो सब,...

राम राम, हे ग्राम देवता, भूति ग्राम ! तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम, शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,...

आओ, अपने मन को टोवें! व्यर्थ देह के सँग मन की भी निर्धनता का बोझ न ढोवें। जाति पाँतियों में बहु बट कर ...

धिक रे मनुष्य, तुम स्वच्छ, स्वस्थ, निश्छल चुंबन अंकित कर सकते नहीं प्रिया के अधरों पर? मन में लज्जित, जन से शंकित, चुपके गोपन तुम प्रेम प्रकट करते हो नारी से, कायर!...

आज भी सुंदरता के स्वप्न हृदय में भरते मधु गुंजार, वर्ग कवियों ने जिनको गूँथ रचा भू स्वर्ग, स्वर्ण संसार!...

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना? कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने वह गाना?...

भ्रम, भ्रम, भ्रम,-- घूम घूम भ्रम भ्रम रे चरख़ा कहता: ’मैं जन का परम सखा, जीवन का सीधा सा नुसख़ा—...

तुम धन्य, वस्त्र व्यवसाय कला के सूत्रधार, बर्बर जन के तन से हर वल्कल, चर्म भार, तुमने आदिम मानव की हर नव द्वन्द्व लाज, बन शीत ताप हित कवच, बचाया जन समाज।...

मैं सबसे छोटी होऊँ, तेरी गोदी में सोऊँ, तेरा अंचल पकड़-पकड़कर फिरू सदा माँ! तेरे साथ,...

भारत माता ग्रामवासिनी। खेतों में फैला है श्यामल धूल भरा मैला सा आँचल,...

विज्ञान ज्ञान बहु सुलभ, सुलभ बहु नीति धर्म, संकल्प कर सकें जन, इच्छा अनुरूप कर्म। उपचेतन मन पर विजय पा सके चेतन मन, मानव को दो यह शक्ति: पूर्ण जग के कारण!...

रोमांचित हो उठे आज नव वर्षा के स्पर्शों से? छोटे से आँगन मेरे, तुम रीते थे वर्षों से! नव दूर्वा के हरे प्ररोहों से अब भरे मनोहर मरकत के टुकड़े से लगते तुम विजड़ित भू उर पर!...

चिर प्रणम्य यह पुष्य अहन, जय गाओ सुरगण, आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन ! नव भारत, फिर चीर युगों का तिमिर-आवरण, तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन ! ...

पशुओं से मृदु चर्म, पक्षियों से ले प्रिय रोमिल पर, ऋतु कुसुमों से सुरँग सुरुचिमय चित्र वस्त्र ले सुंदर, सुभग रूज़, लिप स्टिक, ब्रौ स्टिक, पौडर से कर मुख रंजित, अंगराग, क्यूटेक्स अलक्तक से बन नख शिख शोभित;...

आज रहने दो यह गृह-काज, प्राण! रहने दो यह गृह-काज! आज जाने कैसी वातास छोड़ती सौरभ-श्लथ उच्छ्वास,...

जीवन का श्रम ताप हरो हे! सुख सुषुमा के मधुर स्वर्ण हे! सूने जग गृह द्वार भरो हे! लौटे गृह सब श्रान्त चराचर...

जग के उर्वर-आँगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन! बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन!...

जन पर्व मकर संक्रांति आज उमड़ा नहान को जन समाज गंगा तट पर सब छोड़ काज। नारी नर कई कोस पैदल...

भारत माता ग्रामवासिनी। खेतों में फैला है श्यामल धूल भरा मैला सा आँचल,...

बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर, मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर! वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर, नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!...

मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे , रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी , और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा ! ...

चींटी को देखा? वह सरल, विरल, काली रेखा तम के तागे सी जो हिल-डुल, चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल, ...

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन? जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन! संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन, नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन? ...

द्वाभा के एकाकी प्रेमी, नीरव दिगन्त के शब्द मौन, रवि के जाते, स्थल पर आते कहते तुम तम से चमक--कौन?...

पैगम्बर के एक शिष्य ने पूछा, 'हजरत बंदे को शक है आजाद कहां तक इंसा दुनिया में,पाबंद कहां तक?'...

नारी की संज्ञा भुला, नरों के संग बैठ, चिर जन्म सुहृद सी जन हृदयों में सहज पैठ, जो बँटा रही तुम जग जीवन का काम काज तुम प्रिय हो मुझे: न छूती तुमको काम लाज।...

मैं चिर श्रद्धा लेकर आई वह साध बनी प्रिय परिचय में, मैं भक्ति हृदय में भर लाई, वह प्रीति बनी उर परिणय में। ...

निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय!-- जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल,-- गत आदर्शों का अभिभव ही मानव आत्मा की जय, अत: पराजय आज तुम्हारी जय से चिर लोकोज्वल!...

कृषि युग से वाहित मानव का सांस्कृतिक हृदय जो गत समाज की रीति नीतियों का समुदय, आचार विचारों में जो बहु देता परिचय, उपजाता मन में सुख दुख, आशा, भय, संशय,...

झरो, झरो, झरो, जंगम जग प्रांगण में, जीवन संघर्षण में नव युग परिवर्तन में...

ओ रभाती नदियों, बेसुध कहाँ भागी जाती हो? वंशी-रव ...

खड़ा द्वार पर, लाठी टेके, वह जीवन का बूढ़ा पंजर, चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी हिलते हड्डी के ढाँचे पर।...