तितली
नीली, पीली औ’ चटकीली पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल, प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली तुम किस सुख में हो रही डोल? चाँदी-सा फैला है प्रकाश, चंचल अंचल-सा मलयानिल, है दमक रही दोपहरी में गिरि-घाटी सौ रंगों में खिल! तुम मधु की कुसुमित अप्सरि-सी उड़-उड़ फूलों को बरसाती, शत इन्द्र चाप रच-रच प्रतिपल किस मधुर गीति-लय में जाती? तुमने यह कुसुम-विहग लिवास क्या अपने सुख से स्वयं बुना? छाया-प्रकाश से या जग के रेशमी परों का रंग चुना? क्या बाहर से आया, रंगिणि! उर का यह आतप, यह हुलास? या फूलों से ली अनिल-कुसुम! तुमने मन के मधु की मिठास? चाँदी का चमकीला आतप, हिम-परिमल चंचल मलयानिल, है दमक रही गिरि की घाटी शत रत्न-छाय रंगों में खिल! --चित्रिणि! इस सुख का स्रोत कहाँ जो करता निज सौन्दर्य-सृजन? ’वह स्वर्ग छिपा उर के भीतर’-- क्या कहती यही, सुमन-चेतन?

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