आज रहने दो यह गृह-काज
आज रहने दो यह गृह-काज, प्राण! रहने दो यह गृह-काज! आज जाने कैसी वातास छोड़ती सौरभ-श्लथ उच्छ्वास, प्रिये लालस-सालस वातास, जगा रोओं में सौ अभिलाष। आज उर के स्तर-स्तर में, प्राण! सजग सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार, दृगों में मधुर स्वप्न-संसार, मर्म में मदिर-स्पृहा का भार! शिथिल, स्वप्निल पंखड़ियाँ खोल आज अपलक कलिकाएँ बाल, गूँजता भूला भौंरा डोल सुमुखि! उर के सुख से वाचाल! आज चंचल-चंचल मन-प्राण, आज रे शिथिल-शिथिल तन भार; आज दो प्राणों का दिन-मान, आज संसार नहीं संसार! अजा क्या प्रिये, सुहाती लाज? आज रहने दो सब गृह-काज!

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