महात्मा जी के प्रति
निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय!-- जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल,-- गत आदर्शों का अभिभव ही मानव आत्मा की जय, अत: पराजय आज तुम्हारी जय से चिर लोकोज्वल!   मानव आत्मा के प्रतीक! आदर्शों से तुम ऊपर, निज उद्देश्यों से महान, निज यश से विशद, चिरंतन; सिद्ध नहीं, तुम लोक सिद्धि के साधक बने महत्तर, विजित आज तुम नर वरेण्य, गणजन विजयी साधारण! युग युग की संस्कृतियों का चुन तुमने सार सनातन नव संस्कृति का शिलान्यास करना चाहा भव शुभकर, साम्राज्यों ने ठुकरा दिया युगों का वैभव पाहन-- पदाघात से मोह मुक्त हो गया आज जन अन्तर! दलित देश के दुर्दम नेता, हे ध्रुव, धीर, धुरंधर, आत्म शक्ति से दिया जाति शव को तुमने जीवन बल; विश्व सभ्यता का होना था नखशिख नव रूपांतर, राम राज्य का स्वप्न तुम्हारा हुआ न यों ही निष्फल! विकसित व्यक्तिवाद के मूल्यों का विनाश था निश्चय, वृद्ध विश्व सामंत काल का था केवल जड़ खँडहर! हे भारत के हृदय! तुम्हारे साथ आज नि:संशय चूर्ण हो गया विगत सांस्कृतिक हृदय जगत का जर्जर!   गत संस्कृतियों का आदर्शों का था नियत पराभव, वर्ग व्यक्ति की आत्मा पर थे सौध धाम, जिनके स्थित; तोड़ युगों के स्वर्ण पाश अब मुक्त हो रहा मानव, जन मानवता की भव संस्कृति आज हो रही निर्मित! किए प्रयोग नीति सत्यों के तुमने जन जीवन पर, भावादर्श न सिद्ध कर सके सामूहिक-जीवन-हित; अधोमूल अश्वत्थ विश्व, शाखाएँ संस्कृतियाँ वर, वस्तु विभव पर ही जनगण का भाव विभव अवलंबित! वस्तु सत्य का करते भी तुम जग में यदि आवाहन, सब से पहले विमुख तुम्हारे होता निर्धन भारत; मध्य युगों की नैतिकता में पोषित शोषित-जनगण बिना भाव-स्वप्नों को परखे कब हो सकते जाग्रत? सफल तुम्हारा सत्यान्वेषण, मानव सत्यान्वेषक! धर्म, नीति के मान अचिर सब, अचिर शास्त्र, दर्शन मत, शासन जन गण तंत्र अचिर-युग स्थितियाँ जिनकी प्रेषक, मानव गुण, भव रूप नाम होते परिवर्तित युगपत! पूर्ण पुरुष, विकसित मानव तुम, जीवन सिद्ध अहिंसक, मुक्त-हुए-तुम-मुक्त-हुए-जन, हे जग वंद्य महात्मन्! देख रहे मानव भविष्य तुम मनश्चक्षु बन अपलक, धन्य, तुम्हारे श्री चरणों से धरा आज चिर पावन!

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